SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 396
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ तब आयुष्यमान् आनन्द वहाँ आये। भगवान् ने कहा-'मत आनन्द ! शोक करो, मत आनन्द ! रोओ। मैंने कल ही कहा था, सभी प्रियों का वियोग अवश्यंभावी है। आनन्द ! तू ने चिरकाल तक तथागत की सेवा की हैं । तू कृतपुण्य है। निर्वाण-साधन में लग। शीघ्र अनाश्रव हो।" कुशीनारा ही क्यों? आनन्द ने कहा-'भन्ते ! मत इस क्षुद्र नगरक में, शाखा नगरक में, जंगली नगरक में, आप परिनिर्वाण को प्राप्त हों । अनेक महानगर हैं-चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत, कौशाम्बी, वाराणसी; वहाँ आप परिनिर्वाण को प्राप्त करें। वहाँ बहुत से धनिक क्षत्रिय, धनिक ब्राह्मण, तथा अन्य बहुत से धनिक गृहपति भगवान् के भक्त हैं । वे तथागत के शरीर की पूजा करेंगे।" "आनन्द ! मत ऐसा कहो। कुशीनारा का इतिहास बहुत बड़ा है। किसी समय यह नगर महासुदर्शन चक्रवर्ती की कुशावती नामक राजधानी था। आनन्द ! कुशीनारा में जाकर मल्लों को कह-वाशिष्टो ! आज रात के अन्तिम प्रहर तथागत का परिनिर्वाण होगा। चलो वाशिष्टो! चलो वाशिष्टो ! नहीं तो फिर अनुताप करोगे कि हम तथागत के बिना दर्शन के रह गए।" आनन्द ने ऐसा ही किया। मल्ल यह संवाद पा चिन्तत व दुःखित हुए । सब के सब भगवान् के वन्दन के लिये आये । आनन्द ने समय की स्वल्पता को समझ कर एक-एक परिवार को क्रमशः भगवान् के दर्शन कराये। इस प्रकार प्रथम याम में मल्लों का अभिवादन सम्पन्न हुआ। द्वितीय याम में सुभद्र की प्रव्रज्या सम्पन्न हुई।' अन्तिम आदेश १. तब भगवान् ने कहा "आनन्द ! सम्भव है, तुम्हें लगे कि शास्ता चले गये, अब उनका उपदेश है, शास्ता नहीं है। आनन्द ! ऐसे समझना, मैंने जो धर्म कहा है, मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता है। मैंने जो विनय कहा है, मेरे बाद वही तुम्हारा शास्ता है। २. "आनन्द ! अब तक भिक्षु एक-दूसरे को 'आवुस' कह कर पुकारते रहे हैं। मेरे पश्चात् अनुदीक्षित को 'आवुस' कहा जाये और पूर्व दीक्षित को 'भन्ते' या 'आयुष्यमान्' कहा जाये। ३. "आनन्द ! मेरे पश्चात् चाहे तो संघ छोटे और साधारण भिक्षु-नियमों को छोड़ १. पूरे विवरण के लिए देखें, 'काल-निर्णय' प्रकरण के अन्तर्गत 'श्री श्रीचन्द रामपुरिया' तथा 'त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त' प्रकरण के अन्तर्गत २५ वा प्रसंग। ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy