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इतिहास और परम्परा ]
समसामयिक धर्म - नायक
से संवृत होकर वह विहार करने लगा । मात्र भोजन और वस्त्रों में ही सन्तुष्ट रह कर एकान्त में लीन रहने लगा। राजन् ! कोई नागरिक आपको इस घटना से सूचित करे, तो क्या आप चाहेंगे कि वह पुरुष उस साधना से लौट आये और पुनः कर्मकर होकर ही रहे ?"
"नहीं भन्ते ! ऐसा नहीं होगा । हम तो उसका अभिवादन करेंगे, प्रत्युत्थान करेंगे, उसकी सेवा करेंगे, उसको आसन देंगे और चीवर, पिण्डपात, शयन आसन, औषधि व पथ्य आदि के लिए उसे निमंत्रण देंगे। उसकी सभी तरह से देख-भाल करेंगे ।"
"राजन् ! यदि वह ऐसा ही है तो क्या यह सांदृष्टिक ( प्रत्यक्ष ) श्रामण्य फल नहीं है ?"
"अवश्य, भन्ते ! यह सांदृष्टिक श्रामण्य फल ही है ।"
श्रागमों में
सूयगडांग, ( सुत्रकृतांग ) आगम में भी सामफल सुत्त की तरह समसामयिक अनेक मतवादों का वर्णन मिलता है । वहाँ "कुछ एक ऐसा मानते हैं" की शैली से मुख्यत: लिखा गया है । मतों व मत- प्रवर्तकों के उल्लेख वहां नहीं हैं । इसी आगम के प्रथम श्रुतस्कन्ध, अ० १, उद्देश्य १, गाथा १३ में पूरण कस्सप के अक्रियवाद' की, गाथा १५-१६ में पकुध कच्चायन के अन्योन्यवाद की गाथा ११-१२ में अजित केसकम्बली के उच्छेदवाद की झलक मिलती है । इस आगम में वर्णित अज्ञानवाद में संजय वेलट्ठिपुत्त के विक्षेपवाद की झलक मिलती है । बौद्ध और आजीविकों के तो वहाँ स्पष्ट अभिमत मिलते ही हैं। टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने इन मतों की पहचान बौद्ध, वार्हस्पत्य, चार्वाक, वेदान्त, सांख्य, अदृष्टवाद आजीवक, त्रैराशिक, शैव आदि मतों के रूप में की है ।
जैन शास्त्रकारों तत्कालीन विभिन्न मतों के क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और वैनयिकवाद के विभागों में बाँटा है ।
आब्रेक मुनि
सुयगडांग का अद्द इज्जणाम ( आवकीयाख्य) अध्ययन भी सामञ्ञफल सुत्त की तरह
१. कुव्वं च कारयं चेव, सव्वं कुव्वं न विज्जई । एवं अकारओ अप्पा, एवं ते उ पगमिआ || २. सन्ति पंच महब्भूया, इहमेगेसि आहिया । आयछट्ठो पुणो आहु, आया लोगे य सासए || दुओ ण विणस्संति, नो य उप्पज्जए असे । सव्वेऽवि सव्वा भावा, नियत्ती भाव मागया ॥ ३. पत्ते कसिणे आया, जे बाला जे अ पंडिआ । संति पिच्चा न ते संति, नत्थि सत्तोववाइया ॥ पुणे व पावे वा, नत्थि लोए इतो वरे । सरीरस्स विणासेणं, विणासो होइ देहिणो ॥
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