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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
है और अगर मुझे ऐसा लगे कि परलोक है, तो मैं कहूंगा-हां । परन्तु, मुझे वैसा नहीं लगता। मुझे ऐसा भी नहीं लगता कि परलोक नहीं है। औपपातिक प्राणी है या नहीं, अच्छेबुरे कर्म का फल होता है या नहीं, तथागत मृत्यु के बाद रहता है या नहीं, इनमे से किसी भी बात के विषय में मेरी कोई निश्चित धारणा नहीं है।"
६. निगण्ठ नातपुत्त : चातुर्याम संवरवादी
"निगण्ठ नातपुत्त (महावीर) चातुर्याम संवरवादी थे। उनके चार संवर थे : १. निर्ग्रन्थ जल के व्यवहार का वारण करता है, जिससे जल के जीव न मर जायें । २. निर्ग्रन्थ सभी पापों का वारण करता है। ३. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण करने से धुतपाप हो जाता है। ४. निर्ग्रन्थ सभी पापों के वारण करने में लगा रहता है।
इस प्रकार निर्ग्रन्थ चार संवरों से संवृत रहता है, इसीलिए वह निर्ग्रन्थ, गतात्मा (अनिच्छुक), यतात्मा (संयमी) और स्थितात्मा कहलाता है।"
छः धर्म-नायकों की उक्त मान्यताएं बौद्ध शास्त्रकारों ने निराकरण-बुद्धि से यहां प्रस्तुत की हैं, इसलिए यह नहीं मान लेना चाहिए कि उक्त धर्म नायकों की मान्यताओं का यह कोई सर्वांशतः प्रामाणिक और पर्याप्त ब्यौरा है। निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र की उक्त मान्यता के पठन मात्र से ही स्पष्ट होता है कि बौद्ध शास्त्रकारों ने यहां पर्याप्त तटस्थता और पूर्ण जानकारी से काम नहीं लिया है। इसी प्रकार अन्य धर्म-नायकों के सम्बन्ध में भी यही सोचा जा सकता है। किन्तु, कुल मिलाकर यह मान लेने में भी कोई हानि नहीं लगती कि स्थूल रूप से विभिन्न धर्म-नायकों की विभिन्न मान्यताओं का एक अस्पष्ट और अपूर्ण-सा प्रतिबिम्ब इन में अवश्य आया है। जो मान्यताएं आज लुप्त हो चुकी हैं, उनकी जानकारी के लिए ये प्रकरण अवश्य उपयोगी हो जाते हैं।
सामञफल सुत्त के इस सारे प्रकरण का अभिप्राय भी अन्य सारे धर्म-नायकों की न्यूनता बतलाकर गौतम बुद्ध की श्रेष्ठता बतलाना है। वह भी इस सन्दर्भ में कि अजातशत्रु (कोणिक) गौतम बुद्ध के पास आता है और श्रामण्य का प्रत्यक्ष फल पूछता है। गौतम बुद्ध द्वारा यह पूछे जाने पर, "राजन् ! यह श्रामण्य-फल क्या अन्य तैथिकों से भी पूछा है ?" अजातशत्र ने कहा- " मैं छहों धर्म-नायकों को यह प्रश्न पूछ चुका हूं। उन्होंने अपनेअपने बतलाये, पर पश्न का यथोचित उत्तर नहीं दिया। भन्ते ! जैसा कि पूछे आम, उत्तर दे कटहल, पूछे कटहल, उत्तर दे आम । मुझे उनके उत्तर से कोई सन्तोष नहीं मिला।"
. भगवान् बुद्ध ने अपनी ओर से प्रत्यक्ष श्रामण्य-फल बताते हुए कहा-"राजन् ! आपके अभिप्राय के अनुसार चलने वाला, सेवाभावी, मधुरभाषी और प्रत्येक कार्य में तत्पर आपका एक कर्मकर सोचता है, पुण्य की गति और पुण्य का फल बड़ा अद्भुत और आश्चर्यकारी है। ये मगधराज अजातशत्रु भी मनुष्य हैं और मैं भी मनुष्य ही हूँ। ये पांच प्रकार के कामगुणों का भोग करते हुए देवता की तरह विचरते हैं और मैं इनका दास हूँ; अतः इनकी सेवा करता हूं। मुझे पुण्य-कार्य करना चाहिए। सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र पहिन घर से बेघर हो, प्रवजित हो जाना चाहिए। और उसने वैसा ही किया। शरीर, वचन और मन
१. दीध निकाय (हिन्दी अनुवाद), पृ० २१ का सार ।
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