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________________ इतिहास और परम्परा ] xxvii संयुक्त निकाय के पुत्तमं ससुत्त' के अनुसार - एक दम्पती अपने इकलौते पुत्र को मारकर उसके मांस से क्षुधा शान्त कर अरण्य पार करते हैं । उन्होंने वह आहार दर्प, मद, मण्डन विभूषा के लिए नहीं, अपितु अरण्य पार करने के लिए किया । बुद्ध ने इस कथा प्रसंग के सन्दर्भ में कहा - " भिक्षुओ ! आर्यश्रावक भी ऐसे ही दर्प, मद आदि के लिए आहार नहीं करते, किन्तु भव- कान्तार से पार होने के लिए करते हैं ।' ११२ मनुस्मृति त' में कहा गया है प्रस्तावता जीवितात्ययमापन्नो योऽन्नमत्ति यतस्ततः । आकाशमिव पङ्केन न स पापेन लिप्यते ॥ अजीर्गत: सुतं हन्तुमुपासर्पबुभुक्षितः । न चालिप्यत पापेन क्षुत्प्रतीकारमाचरन् ॥ यहां अजीर्गत ऋषि के पुत्रवध करने की और पाप से लिप्त न होने की बात कही गई है । इन सब समुल्लेखों व प्रसंगों से यह स्पष्ट झलकता है कि किसी युग में पिता के द्वारा स्थितिवश पुत्रवध होने की एक सामान्य धारणा रही है और वही धारणा जैन, बौद्ध व वैदिक परम्परा में खण्डन या मण्डन के प्रसंग से दुहराई जाती रही है । इस स्थिति में पुत्तं पिया समारब्भ का पदच्छेद ही अधिक यथार्थ रह जाता है । सूयगडांग में बौद्ध मान्यता के परिचय - प्रसंग से यह गाथा कही गई है । अग्रिम गाथाओं में इस मान्यता का निराकरण किया गया है । विश्रुत विद्वान् डा० ए० एन० उपाध्ये ने ग्रन्थ का आद्योपान्त पारायण किया व काल गणना के तथ्यों पर सहमति व्यक्त की, यह भी मेरे आत्मतोष का विषय बना । प्रस्तुत खण्ड में विभिन्न भाषाओं के लगभग ३०० ग्रन्थ उद्धरण रूप में प्रयुक्त हुए हैं। इससे भी अधिक विषय - सम्बद्ध ग्रन्थों का अवलोकन करना पड़ा है । मैं उनके रचयिताओं के I १. निदान वग्ग, निदान संयुक्त, २।१२/६३ ॥ २. "तं किं मञ्ञथ, भिक्खवे, अपि नु तो दवाय वा आहारं आहारेय्यु, मदाय वा आहारं आहारेय्यु, मण्डनाय वा आहारं आहारेय्युं, विभूसनाय वा आहारं आहारेय्युं" ति ? "नो हेतं, अन्ते ।" "ननु ते, भिक्खवे, यावदेव कन्तारस्स नित्थरणत्थाय आहारं आहारेय्यु" ति ? "एवं, भन्ते" " एवमेव वाहं, भिक्खवे, कबलीकारो आहारो दट्ठब्बो ति वदामि । कबलीकारे, भिक्खवे, आहारे परिञ्ञाते पञ्चकामगुणिको रागो परिज्ञातो होति । पञ्चकामगुणि रागे परित्राते जस्थित संयोजनं येन संयोजनेन संयुत्ते अरियसावको पुन इमं लोकं आगच्छेय्य । " Jain Education International 2010_05 - संयुत्तनिकाय पालि, सं० भिक्खु जगदीसकस्सपो, पृ० ८४ | ३. अध्याय १०, श्लोक १०४, १०५ ४. यह कथा बहवृच ब्राह्मण में अजीर्गत के आख्यान में स्पष्ट रूप से मिलती है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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