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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
खण्ड : १
प्रति स्वयं को कृतज्ञ अनुभव करता हूँ। अनेक रचयिताओं के मन्तव्य का मैंने निराकरण भी किया है । उसमें भी मेरा अध्यवसाय विचार-समीक्षा का ही रहा है, साम्प्रदायिक खण्डनमण्डन का नहीं । आशा है, सम्बन्धित विद्वान उसे इसी सन्दर्भ में देखेंगे।
मुनि महेन्द्रकुमारजी 'प्रथम' और मुनि महेन्द्रकुमारजी 'द्वितीय' ने प्रस्तुत ग्रन्थ का सम्पादन किया है । सम्पादन कितना श्रम-साध्य व मेघापरक हुआ है, यह तो जैन पारिभाषिक शब्दकोश, बौद्ध पारिभाषिक शब्दकोश आदि परिशिष्ट स्वयं बोल रहे हैं। ग्रन्थ के साथ उनका लगाव केवल सम्पादन तक ही नहीं रहा है, रूपरेखा-निर्माण से ग्रन्थ की सम्पन्नता तक चिन्तन, मनन, अध्ययन, अन्वेषण आदि सभी कार्यों में वे हाथ बटाते रहे हैं।
इस कार्य में परोक्ष सहयोग मुनि मानमलजी (बीदासर) का है। वे मेरी अन्य अपेक्षाओं के पू पूरक हैं । जीवन की कोई भी अपेक्षा अन्य अपेक्षाओं से नितान्त निरपेक्ष नहीं हुआ करती।
विद्यमान खण्ड से सम्बन्धित अन्तिम पंक्तियाँ आज मैं धरती और सागर के संगमबिन्दु पर लिख रहा हूँ। अभिलाषा है, आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन ग्रन्थ भी जैन और बौद्ध संस्कृतियों का संगम-बिन्दु बने ।
मुनि नगराज
अणुव्रत सभागार ८८, मेरिन ड्राइव बम्बई-2 ६ फरवरी, १९६६
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