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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड: १ प्रस्तुत गाथा का पदच्छेद चूर्णि में जिनदासगणि ने 'पुत्रम् अपि तावत् सपारभ्य " किया है; टीका में शीलंकाचार्य ने पुत्रं पिता समारभ्य" किया है। कुछ एक विद्वान् चूर्णि के पदच्छेद को संगत मानने लगे हैं। उनकी दृष्टि में विशेष परिस्थिति में भी पिता पुत्र का वध करें' यह बात असामान्य है । प्रस्तुत गाथा के चूर्णिकृत पदच्छेद में भी पुत्रम् अपि तो रह ही जाता है । इस स्थिति में चूर्णि और टीका के पदच्छेद का अर्थ पुत्रवध के रूप में एक ही रह जाता है। पिता या माता तो अध्याहार से आ ही जाते हैं । xxvi 'पिता के द्वारा पुत्रवध' की बात वर्तमान युग में नितान्त असामान्य ही है। पर, प्राचीन ग्रन्थों में तथाप्रकार का उल्लेख अनेक स्थलों पर उपलब्ध होता है । तेलोवाद जातक (बालोवाद जातक, सं० २४६ ) ' के अनुसार भिक्षु उद्दिष्ट माँस के आहार से पापलिप्त होता है' इस बात का उत्तर देते हुए बोधिसत्त्व कहते हैं : पुत्तवारं पि चे हन्त्वा देति वानं असञ्जतो । भुञ्जमानोऽपि सप्पञ्जो न पापमुपलिम्पति ॥ यहाँ स्पष्ट रूप से पुत्र और स्त्री का वध कर भिक्षु को दान देने की बात कही है। यह गाथा पिता के द्वारा पुत्रवध के अर्थ की निर्विवाद पुष्टि करती है । सूयगडांग की उक्त गाथा के साथ इसका भावसाम्य व शब्दसाभ्य भी है। चुल्ल पउम जातक के अनुसार किसी एक भव में बोधिसत्त्व और उनके छः भाई अपनी सात पत्नियों सहित अरण्य पार करते हैं । मार्ग में प्रतिदिन एक-एक पत्नी का वध कर उसके माँस से क्षुधा शान्त करते हैं । 3 जैन आगम नायधम्मकहाओ में बताया है-- धन्ना सार्थवाह और उसके पुत्रों ने परस्पर स्वयं को मारकर अन्य सबको जीवित रहने की बात कही । अन्त में उन्होंने अपनी पुत्री तथा बहिन मृत सुषमा के मांस व रक्त से क्षुधा तृषा शान्त की और वे अरण्य पार कर राजगृह पहुँचे । उनके इस उपक्रम में आरवाद, देहोपचय आदि का उद्देश्य नहीं था । उनका लक्ष्य केवल अरण्य पार कर राजगृह पहुंचने का था । महावीर ने इस कथा वस्तु के उदाहरण से बताया- ' इसी प्रकार साधु भी वर्ण, रूप, बल या विषय के लिए नहीं, किन्तु मोक्ष प्राप्ति के लिए आहार करते हैं । ५ १. देखें, प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ४३५ । २. जातक संख्या १६३ । ३. इस कथानक का अग्रिम भाग 'जितशत्रु राजा और सुकुमाला रानी' की प्रसिद्ध जैन कथा के समान ही है । ४. पूर्ण वृत्तान्त के लिए द्रष्टव्य, श्रुतस्कन्ध १, अध्याय १८ । ५. घणेणं सत्थवाहेणं नो वण्णहेउं वा नो रूवहेडं वा नो बलहेडं वा नो विसयहेउं वा सुसुमाए दारियाए मंससोणिए आहारिए नन्नत्थ एगाए रायगिहं संपावणट्टयाए एवामेव समणाउसो ! जो अहं निग्गंथों वा निग्गंथी वा इमस्स ओरालियस रीरस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्का वस्स सोणियासवस्स जाव अवस्सविप्पजहियव्वस्स नो वण्णहेउं वा नो रूवहेउ वा नो बलहेउ वा नो विसयहेउ वा आहारं आहारेइ नन्नत्थ एगाए सिद्धिगमणसंपावणट्टयाए । --णायघम्मकहाओ, सं० एन० वी० वैद्य, पृ० २१४ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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