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________________ इतिहास और परम्परा प्रस्तावना XXV प्रतिपादनात्मक पौष्ठव अग्रिम प्रकरणों की अपेक्षा प्राक्तन प्रकरणों में कुछ दुर्बल रहा है, ऐसा मुझे प्रतीत होता है। बड़े ग्रन्थ के आरम्भ और अन्त में यह अन्तर रहना अस्वाभाविक भी नहीं है। महामहिम आचार्य श्री तुलसी मेरे निर्यामक रहे हैं । जीवन की नाव आवत्तों से बचकर, ज्वारों को लाँधकर जो मंजिलें पार कर रही है, उसमें निर्यामक का कौशल एक अप्रतिम हेतु है ही। प्रथम खण्ड की सम्पन्नता भी एक बड़ी मंजिल का तय होना ही है । आचार्यप्रवर ने तेरापंथ साधु-संघ में साहित्य की अनेक धाराओं का सूत्रपात किया है, जिसमें एक धारा यह तुलनात्मक अनुशीलन एवं शोध-साहित्य की है। ग्रन्थ की सम्पन्नता के साथ-साथ एक ऐतिहासिक मूल्य का प्रसंग बना । महाप्राज्ञ पण्डित सुखलालजी के समक्ष ग्रन्थ का आद्योपान्त पारायण हुआ। वार्धक्य और व्यस्तता की अवगणना कर पण्डितजी ने ग्रन्थ-श्रवण में उल्लेखनीय रस लिया। इस सम्बन्ध में उन्होंने तलनात्मक चर्चा एवं तटस्थ अन्वेषण के अनेक आयाम सझाए। इस तीन सप्ताह के चिन्तन. मनन व ग्रन्थ-समीक्षण में मेरे लिए सर्वाधिक सन्तोष की बात यह बनी कि महावीर की ज्येष्ठता के विषय में पण्डितजी ने सुदृढ़ सहमति व्यक्ति की एवं 'एक अवलोकन' लिखा। अपनी ८८ वर्ष की आयु में इतना आयास उठाकर पण्डितजी ने ग्रन्थ को और मुझे भारवान् बनाया है। सूक्ष्मदर्शी पण्डित बेचरदासजी ने ग्रन्थ-अवलोकन के सन्दर्भ में सुझाया, सूयगडांग की 'पुत्तं पिया समारम्भ..." गाथा भगवान् बुद्ध के 'सूकरमद्दव' आहार की ओर संकेत करती है,ऐसा प्रतीत होता है। जैन आगमों में बुद्ध व बौद्ध धर्म से सम्बन्धित कोई घटना-प्रसंग नहीं है-इस मान्यता में यह गाथा अपवाद बन सकती है। पण्डित बेचरदासजी का मानना है कि इस गाथा में बोधाभाव से पुति शब्द के बदले पुत्त शब्द किसी युग से प्रचलित हो गया है । संस्कृत में पोत्रिन शब्द सूकर का वाची है । ३ प्राकृत में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में उसका पुत्ति रूप बन जाता है। पण्डित बेचरदासजी के इस अनुमान का थोड़ा-सा समर्थन' सुयगडांग चूणि भी करती है। चूर्णिकार ने इस गाथा में "पुत्र' शब्द की व्याख्या में “शूकरं वा छगलं वा" भी किया है। पर बुद्ध के सूकरमद्दव आहार का कोई संकेत वहां नहीं है। इसी गाथा के उदाहरण में लावक पक्षी को मारकर भिक्षु को देने की एक अन्य कथा दी गई है। १. पुत्तं पिया समारब्भ आहारेज्ज असंजए। मुंजमाणो य मेहावी कम्मुणा नो विलप्पइ । -सूयगडाँग, श्रु०१, अ०१, उ० २, श्लोक २८ । २. प्रस्तुत ग्रन्थ, पृ० ८६ ।। ३. वराहः सूकरो घृष्टिः कोलः पोत्री किरिः किटिः। -अमरकोश, द्वितीय काण्ड, सिंहादिवर्ग, श्लोक २। वराहः क्रोड-पोत्रिणी। -अभिधान चिन्तामणि, तृतीय काण्ड, श्लोक १८० । ४. सूयगडाँग चूणि, पृ० ५० प्र० ऋषभदेवजी केशरीमलजी श्वे० संस्था, रतलाम । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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