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________________ xxiv आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ अपने द्वारा सम्पादित उत्तराज्झयणाणि की भूमिका में तथा अपने स्फुट लेखों में तुलनापरक चर्चाएं की हैं। डॉ. हर्नले ने अपने द्वारा सम्पादित व अनूदित उवासगदसाओ में भी इसी विषय को छुआ है। डॉ० शूबिंग ने जैन-धर्म पर लिखे गये अपने शोध-ग्रन्थ' में यत्र-तत्र इस ओर संकेत किया है। डॉ. बाशम ने आजीवक सम्प्रदाय पर लिखे अपने शोध-ग्रन्थ में महावीर बुद्ध और गोशालक के सम्बन्धों व मान्यताओं पर अपने ढंग से प्रकाश डाला है। भारतीय विद्वानों में पं० सुखलालजी ने अपने स्फुट लेखों में अनेक तुलनापरक पहलू उभारे हैं। पं० बेचरदास दोषी ने भगवती के सम्पादन में तथा पं० दलसुख मालवणिया ने ठाणाग-समवायांग के अनुवाद में अनेक स्थलों पर तुलनापरक टिप्पण देकर विषय को खोला है। इसी प्रकार पं० राहुल सांकृत्यायन, धर्मानन्द कौसम्बी, डॉ० बी० सी० ला, डॉ० नथमल टांटिया, डॉ. जगदीशचन्द्र जैन, डॉ. गोविन्दचन्द्र पाण्डे, डॉ० गुलाबचन्द्र चौधरी, डॉ० भरतसिंह उपाध्याय प्रभृति अनेक विद्वानों ने यत्र-तत्र तुलनात्मक रूप से लिखा है । इनमें से अधिकाँश ने इसे शोधकार्य की महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी दिशा मानकर इस पर स्वतंत्र एवं सर्वाङ्गीण कार्य अपेक्षित बताया है। ____ इन सबसे मुझे लगा, मैं अनजाने ही में किसी भयावने जंगल में तो नहीं चल पड़ा हूँ, जिसमें न राज-मार्ग है, न पगडंडियाँ और आगे कोई मंजिल । मैं जिस ओर चला हूँ, वह कोई बड़ी मंजिल है और जिस पर चला हूँ, वह अनेकों की जानी-बूझी राह है। __ मैंने समग्र कार्य को तीन खण्डों में बाँटा है। प्रथम इतिहास और परम्परा खण्ड, द्वितीय साहित्य और शिक्षापद खण्ड, तृतीय दर्शन और मान्यता खण्ड । यह इतिहास और परम्परा खण्ड सम्पन्न हुआ है। भगवान महावीर की पच्चीसवीं निर्वाण-शताब्दी तक तीनों खण्डों का प्रणयन कर सकू, ऐसा मेरा अभिप्रेत है। ग्रन्थ की भाषा को मैंने साहित्यिक व दार्शनिक "लहजे" से बचाया है। इतिहास व शोध का सम्बन्ध तथ्य-प्रतिपादन से होता है। उनकी अपनी एक स्वतन्त्र शैली है। उसमें आलंकारिता व गूढ़ता का कोई स्थान नहीं होता। शब्दों की शालीनता व भावों की स्पष्टता ही उसका मानदण्ड होती है । शोध-साहित्य में मुख्यतः संक्षेप की शैली अपनाई जाती है । मैंने विस्तार की शैली अपनाई है। संक्षेप की शैली शोध-विद्वानों तथा उनमें भी विषय-सम्बद्ध विद्वानों के उपयोग की रह जाती है। मेरा आशय रहा है, शोध-विद्वानों के साथ-साथ सर्व साधारण के लिए भी प्रन्थ की उपयोगिता रह सके। ग्रन्थ का प्रत्येक प्रकरण अपने आप में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र निबन्ध भी रह सके, ऐसा ध्यान रखा गया है। यही कारण है, ग्रन्थ के अनेक प्रकरणों का शोध-पत्रिकाओं, अभिनन्दन ग्रन्थों तथा प्राच्य सम्मेलनों में यथावत उपयोग होता रहा है। काल-गणना से सम्बन्धित प्रकरण पृथक् पुस्तकाकार भी प्रकाशित हो रहा है । १. The Doctrines of the Jaina's (Motilal Banarasidas, Delhi, 1960) २. The History and Doctrines of the Ajivikas, (Lucac and Co. London, 1957) ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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