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________________ प्रस्तावना भेद और अभेद दृष्टि-धर्म हैं । जहाँ जिसे खोजेंगे, वहाँ उसे पा जायेंगे । जैन और बुद्ध परम्पराएँ परस्पर भेद-बहुल भी हैं और अभेद-बहुल भी। दृष्टि की उभयमुखता से ही हम यथार्थ को पा सकते हैं। प्रस्तुत ग्रन्थ के लेखन में यथार्थ दर्शन का उद्देश्य ही आधारभूत रहा है। भेद और अभेद के ख्यापन की व्यामोहकता से बचे रहने का यथेष्ट ध्यान बरता गया समन्वय की वर्णमाला में सोचने तथा समन्वय की पगडंडियों पर चलने-चलाने में जीवन का सहज विश्वास रहा है। साहित्य भी उसका अपवाद कैसे बनता ? "आचार्य भिक्ष भौर महात्मा गांधी", "जैन दर्शन और आधुनिक विज्ञाम", "अहिंसा-पर्यवेक्षण" आदि मेरे चितन्न ग्रन्थों की श्रृंखला में ही "आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन" ग्रन्थ बन गया। तुलनापरक-ग्रन्थ ही लिखू, ऐसी योजना मैंने कभी नहीं बनाई । जीवन की सहज रुचि से ही यह फलित हुआ है। विचारित सुन्दरम् की अपेक्षा सहज सुन्दरम् सदैव विशिष्ट होता है। प्रतिपादनात्मक साहित्य अश्रेष्ठ नहीं होता, पर वह बहुत श्रेष्ठ भी नहीं कहा जा सकता। जैन या बौद्ध किसी परम्परा पर विभिन्न भाषाओं में विभिन्न ग्रन्थ वर्तमान हैं ही। उन्हें हम अपनी भाषा व अपने क्रम से लिख कर कोई नया सृजन नहीं करते। पीढ़ियों तक वही पिष्टपेषण चलता रहता है । तुलनापरक व शोधपरक साहित्य में नवीन दृष्टि तथा नवीन स्थापनाएं होती हैं। अध्येता उसमें बहुत कुछ अनवगत व अनधीत पाता है । ज्ञान की धारा बहुमुखी होती है व आगे बढ़ती है। मेरे इस दिशा में विशेषतः प्रवृत्त होने में यह भी एक आधारभूत बात रही है। अध्ययन-काल से ही मन में यह संस्कार जम रहा था, महावीर और बुद्ध पर तुलनात्मक रूप से कुछ लिखा जाये तो बहुत ही रोचक, उपयोगी व अपूर्व बन सकता है । यदा-कदा स्फुट लेख इस सम्बन्ध में लिखता भी रहा। विगत ५-६ वर्षों से तो अन्य प्रवृत्तियों से विलग हो केवल इस ओर ही व्यवस्थित रूप से लग गया। मंजिल की ओर बढ़ते हुए मैंने पाया, मेरे से पूर्व अन्य अनेक लोग इसी राह पर चले हैं। कोई दो डग, कोई दस डग । उनकी मंजिल दूसरी थी, उनकी राह दूसरी थी, पर सामीप्य व संक्रमण के क्षणों में दोनों राहें एक हुई हैं। मेरे लिए उन सब के विरल व विकीर्ण पद-चिह्न भी प्रेरक व दिग्सूचक बने। डॉ० ल्यूमैन ने इसी सन्दर्भ में “महावीर और बुद्ध" नाम से एक लघु पुस्तिका लिखी है। डॉ. जेकोबी ने अपने द्वारा अनूदित आयारांग, अत्तराभवणाणि आगमों की भूमिका में तुलनापरक नाना पहलुओं का संस्पर्श किया है। डॉ० शान्टियर ने Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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