SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 620
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६६ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन मोक्ष - सर्वथा कर्म-क्षय के अनन्तर आत्मा का अपने स्वरूप में अधिष्ठान । यवमध्यचन्द्र प्रतिमा - शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर, चन्द्रकला की वृद्धि-हानि के अनुसार दत्ति की वृद्धि - हानि से यवाकृति में सम्पन्न होने वाली एक मास की प्रतिज्ञा । उदाहरणार्थ- शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को एक दत्ति, द्वितीया को दो दत्ति और इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति बढ़ाते हुए पूर्णिमा को पन्द्रह दत्ति । कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को चौदह दत्ति और इस प्रकार क्रमशः एक-एक दत्ति घटाते हुए चतुर्दशी को केवल एक दत्त ही खाना । अमावस्या को उपवास रखना । योग – मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति । योजन- चार कोश परिमित भू-भाग । चक्रवर्ती भरत ने दिग्विजय के लिए जब प्रस्थान किया तो चक्ररत्न सेना के आगे-आगे चल रहा था। पहले दिन जितनी भूमि का अवगान कर वह रुक गया, उतने प्रदेश को तब से योजना की संज्ञा दी गई । यौगलिक – मानव सभ्यता से पूर्व की सभ्यता जिसमें मनुष्य युगल रूप जन्म लेता है । वे 'योगलिक' कहलाते हैं । उनकी आवश्यक सामग्नियों की पूर्ति कल्प वृक्ष द्वारा होती है । रजोहरण -- जैन मुनियों का एक उपकरण, जो कि भूमि प्रमार्जन आदि कामों में आता है । राष्ट्रिय वह प्राधिकारी, जिसकी नियुक्ति प्रान्त की देख-रेख व सार-सम्भाल के लिए की जाती है । रुचकर द्वीप - जम्बूद्वीप से तेरहवां द्वीप । --- [ खण्ड : १ लघु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त - प्रायश्चित का एक प्रकार, जिसमें तपस्या आदि के माध्यम से दोष का शोधन किया जाता है । लघुसिंह निष्क्रीड़ित तप-तप करने का एक प्रकार । सिंह गमन करता हुआ जैसे पीछे मुड़ कर देखता है, उसी प्रकार तप करते हुए आगे बढ़ना और साथ ही पीछे किया हुआ तप भी करना । यह लघु और महा दो प्रकार का होता है। प्रस्तुत क्रम में अधिकाधिक नौ दिन की तपस्या होती है और फिर उसी क्रम से तप का उतार होता है । समग्र तप में ६ महीने और ७ दिन का समय लगता है । इस तप की भी चार परिपाटी होती है । इसका क्रम यंत्र के अनुसार चलता है । (= चित्र परिशिष्ट - २ के अन्त में देखें ।) लब्धि - आत्मा की विशुद्धि से प्राप्त होने वाली विशिष्ट शक्ति । लब्धिधर -1 - विशिष्ट शक्ति - सम्पन्न | लांतक - छठा स्वर्ग । देखें, देव । लेश्या - योगवर्गणा के अन्तर्गत पुद्गलों की सहायता से होने वाला आत्म-परिणाम | लोक धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, पुद्गल और जीव की अबस्थिति | लोकपाल सीमा के संरक्षक । प्रत्येक इन्द्र के चार-चार होते हैं। ये महद्धिक होते हैं और अनेक देव देवियों का प्रभुत्व करते हैं । लोकान्तिक - पाँचवें ब्रह्मस्वर्ग में छह प्रतर हैं। मकानों में जैसे मंजिल होती है, वैसे ही स्वर्गों में प्रतर होते हैं। तीसरे अरिष्ट प्रतर के पास दक्षिण दिशा में त्रसनाड़ी के भीतर चार Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy