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इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश
दिशाओं में और चार ही विदिशाओं में आठ कृष्ण राजियां हैं । लोकान्तिक देवों के यहीं नौ विमान हैं । आठ विमान आठ कृष्ण राजियों में हैं और एक उनके मध्य भाग में है। उनके नाम हैं : १. अर्वी, २. अचिमाल, ६. वैरोचन, ४. प्रभंकर, ५. चन्द्राभ, सूर्याभ, ७. शुक्रा भ, ८. सुप्रतिष्ठ, ६. रिष्टाभ (मध्यवर्ती) । लोक के अन्त में रहने के कारण ये लोकान्तिक कहलाते हैं। विषय-वासना से ये प्रायः मुक्त रहते हैं : अतः देवर्षि भी कहे जाते हैं । अपनी प्राचीन-परम्परा के अनुसार तीर्थङ्करों की दीक्षा के अवसर पर
ये प्रेरित करते हैं। वक्रजड़-शिक्षित किये जाने पर भी अनेक कुतर्कों द्वारा परमार्थ की अवहेलना करने वाला
तथा वक्रता के कारण छलपूर्वक व्यवहार करते हुए अपनी मूर्खता को चतुरता के रूप में
प्रदर्शित करने वाला। वज्रमध्य चन्द्र प्रतिमा-कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से प्रारम्भ होकर, चन्द्रकला की हानि-वृद्धि
के अनुपार, दत्ति की हानि-वद्धि से वज्राकृति में सम्पन्न होने वाली एक मास की प्रतिज्ञा। इसके प्रारम्भ में १५ दत्ति और फिर क्रमशः घटाते हुए अमावस्था को एक दत्ति । शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा को दो और फिर क्रमशः एक-एक बढ़ाते हुए चतुर्दशी
को १५ दत्ति और पूर्णिमा को उपवास । वर्षादान-तीर्थङ्करों द्वारा एक वर्ष तक प्रतिदिन दिया जाने वाला दान । बासदेव-पूर्वभव में किये गये निश्चित निदान के अनुसार नरक या स्वर्ग से आकर वासुदेव
के रूप में अवतरित होते हैं। प्रत्येक अवसर्पिणी-उत्सर्पिणी काल में ये नौ-नौ होते हैं। उनके गर्भ में आने पर माता सात स्वप्न देखती है। शरीर का कर्ण कृष्ण होता है भरत क्षेत्र के तीन खण्डों के एकमात्र अधिपति -प्रशासक होते हैं। प्रति वासुदेव को मार कर ही त्रिखण्डाधिपति होते हैं । इनके सात रत्न होते हैं : १. सुदर्शन-चक्र, २. अमोघ खड्ग, ३. कौमोदकी गदा, ४. धनुष्य अमोघ बाण, ५. गरुड़ध्वज रथ,
६. पुष्प-माला और ७. कौस्तुभमणि ।। विकर्वण लब्धि-तपस्या-विशेष से प्राप्त होने वाली एक दिव्य शक्ति । इसके अनुसार नाना
रूप बनाये जा सकते हैं। शरीर को धागे की तरह इतना सूक्ष्म बनाया जा सकता है कि वह सई के छेद में से भी निकल सके। शरीर को इतना ऊँचा बनाया जा सकता है कि मेरुपर्वत भी उसके घटनों तक रह जाये। शरीर को वायु से भी अधिक हल्का और वज्र से भी भारी बनाया जा सकता है। जल पर स्थल की तरह और स्थल पर जल की तरह उन्मज्जन किया जा सकता है। छिद्र की तरह पर्वत के बीच से बिना रुकावट निकला जा सकता है और पवन की तरह सर्वत्र अदृश्य बना जा सकता है। एक ही समय में अनेक प्रकार के रूपों से लोक को भरा जा सकता है। स्वतन्त्र व
अतिक्रूर प्राणियों को वश में किया जा सकता है । विजय अनुत्तर विमान-देखें, देव । विद्याचरण लब्धि-षष्ठ (वेला) तप करने वाले भिक्षु को यह दिव्य शक्ति प्राप्त हो सकती
है। श्रुति-विहित ईषत् उपष्टम्भ से दो उड़ान में आठवें नन्दीश्वर द्वीप तक पहुँचा जा
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