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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १
रामपुत्र रहते थे। वे भी अपने जिन श्रावकों को वैसा ही कहते थे । मैं उनका भी शिष्य बना। उनसे भी मैंने बहुत कुछ सीखा। उन्होंने भी मुझे सम्मानित पद दिया। पर, मुझे लगा-'इतना ज्ञान भी पाप-क्षय के लिए पर्याप्त नहीं है। मुझे और अन्वेषण करना चाहिए।' यह सोच मैं वहाँ से भी चल पड़ा।"
-Mahavastu Tr. by j. j. jones vol, II, p p. 114-117 के आधार से।
समीक्षा
यहाँ 'जिन-श्रावक' शब्द का प्रयोग आराड़ कालाम, उद्रक रामपुत्र व उनके अनुयायियों का निगण्ठ धर्मी होना सूचित करता है। यह प्रकरण महावस्तु ग्रन्थ का है, जो महायान का प्रमुख ग्रन्थ है । महायान के त्रिपिटक पालि में न होकर संस्कृत में हैं। पालि त्रिपिटकों में जिस अभिप्राय में 'निगण्ठ' शब्द आता है, उसी अर्थ में यहाँ 'जिन-श्रावक शब्द आया है।'
इस प्रसंग से यह तो विशेष रूप से स्पष्ट होता ही है कि बुद्ध ने 'जिन-श्रावकों के साथ रह कर बहुत कुछ सीखा व पाया।
४६. भद्रा कुण्डलकेशा
भद्रा कुण्डलकेशा राजगृह के एक श्रीमन्त की कन्या थी। उसका पिता राजकीय कोषाध्यक्ष था। भद्रा सुरूप व गुणवती थी। एक दिन प्रासाद में बैठे उसने देखा, आरक्षक एक सुन्दर तरुण को बन्दी बनाये वध-स्थान की ओर ले जा रहे हैं। भद्रा उस तरुण के लावण्य पर मुग्ध हई। उसने हठ पकड़ा-“मेरा विवाह इसी तरुण के साथ हो।' माता पिता ने बहुत समझायाः पर, वह नहीं मानी। उसके पिता ने आरक्षकों को धन देकर प्रच्छन्न रूप से उस वध्य को बचा लिया।
वह राजगृह के राज पुरोहित का पुत्र था। उसका जन्म भी उसी दिन हुआ, जिस दिन भद्रा का हुआ था। वह चोर नक्षत्र में जन्मा था, इसलिए उसका नाम सत्थुक था। चोरी के अपराध में ही उसे प्राण-दण्ड मिला था। दोनों का विवाह हो गया। कुछ दिन ही गृह-जीवन सुख से चला। सत्थुक के मन में फिर चोरी करने की आने लगी।
एक दिन उसने भद्रा से कहा- मैंने प्राण-दण्ड के समय देवार्चा की मनौती की थी। बहुत दिन हुए, अब उसे पूरी करना है। सुन्दर वस्त्र आभूषण पहन तुम मेरे साथ चलो। हम पर्वत पर चलेंगे।" भद्रा ने वैसा ही किया। पर्वत पर पहुँच कर सत्थुक ने भद्रा से कहा"सब आभूषण खोल दो और मरने के लिए-तैयार हो जाओ। मैं जन्म-जात चोर हूँ। तुम निरी मूर्ख हो, जो मेरे साथ लगी।" भद्रा सहम गई। उसने कहा-"प्राणेश! मेरा अब कोई सहारा नहीं है । तुम सुझे मारोगे और आभूषण लोगे । तुम्हारे से अन्तिम विदा लेती हुई मैं एक बात चाहती हूँ; पूरी करोगे? मैं सर्वांग आलिंगन चाहती हूँ। फिर मुझे मरना भी सुखकर होगा।"सत्थुक इसके लिए सहमत हुआ। भद्रा ने पीठ की ओर से आलिंगन करते, उसे ऐसा धक्का दे मारा कि पर्वत शिखर से लुढ़कते वह बहुत ही गहरे गर्त में जा गिरा।
१. Cf. Mahavastu, Tr. By J.J. Jones, vol. II, pp. 114n,
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