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________________ इतिहास और परम्परा] त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त सारिपुत्त के मामा को यहाँ निर्ग्रन्थ-उपासक माना गया है । बुद्ध के चाचा निर्ग्रन्थउपासक थे ही। इससे इतना तो प्रतीत होता ही है कि निर्ग्रन्थ-धर्म और बौद्ध-धर्म अनेक परिवारों में घुले-मिले ही चलते थे। लगता है, दोनों परम्पराओं की दान-विषयक धारणा बहुत कुछ समान रही है। अपने-अपने भिक्षुओं को दिया गया दान ही दोनों परम्पराओं में पात्र-दान माना गया है । फिर भी निर्ग्रन्थों को देने से ब्रह्मलोक ही मिले, ऐसा कोई विशेष उल्लेख निर्ग्रन्थ-परम्परा में नहीं मिलता। ४७. नालक परिव्राजक असित ऋषि ने नालक परिव्राजक से कहा-"लोक में बुद्ध उत्पन्न हुए हैं। जिज्ञासाओं के समाधान के लिए तुम वाराणसी चले जाओ।" वह वहाँ गया। वहाँ उसने एक-एक कर काश्यपपूरण यावत् निर्ग्रन्थ ज्ञातिपुत्त से तत्त्व-चर्चा की। किसी से उसे सन्तोष नहीं हुआ। अन्त में बुद्ध के पास गया और अपनी जिज्ञासा का समाधान पा कर सन्तुष्ट हुआ। -Mahavastu, Tr. by J. J. Jones, vol III, p. 379-388 के आधार से । समीक्षा यह प्रसंग महायान-परम्परा का है। हीनयान-परम्परा में भी नालक सुत्त' में यही कथा-प्रसंग उपलब्ध होता है, पर, वहाँ बुद्ध के अतिरिक्त अन्य धर्म-नायकों का उल्लेख नहीं ४८. जिन-श्रावकों के साथ एक बार बुद्ध श्रावस्ती में विहार कर रहे थे। भिक्षुओं को आमंत्रित कर बोले"भिक्षुओ ! मैं प्रवजित हो, वैशाली गया। वहाँ अपने तीन सौ शिष्यों के साथ आराड़-कालाम रहते थे। मैं उनके पास गया। वे अपने जिन-श्रावकों को कहते- 'त्याग करो, त्याग करो।' जिन श्रावक कहते—'हम त्याग करते हैं हम त्याग करते हैं।' "मैंने आराड़-कालाम से कहा- 'मैं भी आपका शिष्य होना चाहता हूँ।' उन्होंने कहा-'जैसे तुम चाहते हो, वैसा करो।' मैं शिष्य रूप में वहाँ रहने लगा। जो उन्होंने सिखाया, वह मैंने सीखा । मेरी मेधा से वे प्रभावित हुए। उन्होंने कहा- 'जो मैं जानता हूँ वही यह गौतम जानता है । अच्छा हो, गौतम ! हम दोनों मिल कर संघ का संचालन करें।' इस तरह कह उन्होंने मुझे सम्मानित पद दिया। "मुझे लगा-'इतना-सा ज्ञान पाप-नाश के लिए पर्याप्त नहीं है। मुझे और गवेषणा करनी चाहिए।' यह सोच मैं राजगृह आया। वहाँ अपने सात सौ शिष्यों के परिवार से उद्रक १. सुत्तनिपात, ३७ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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