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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:१
को अनावृत्त कर दे, मार्ग-विस्मृत को मार्ग बता दे, अन्धेरे में तेल का दीपक दिखा दे, जिससे सनेत्र देख सकें; उसी प्रकार भगवान् ने अनेक प्रकार से धर्म को प्रकाशित किया है । मैं भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भी। आज से मुझे अञ्जलि-बद्ध शरणागत स्वीकार करें।"
बुद्ध ने कहा- "गृहपति ! सोच-समझ कर कदम उठाओ। तुम्हारे जैसे सम्भ्रान्त व्यक्ति के लिए सोच-समझ कर ही निश्चय करना उचित है।"
भन्ते ! भगवान् के इस कथन से मैं और भी प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ हैं। मन्ते ! दूसरे तंर्थिक तो मेरे जैसा श्रावक पाकर फूले नहीं समाते। सारे नालन्दा में पताका उड़ाते फिरते हैं-'उपालि गृहपति हमारा श्रावक हो गया है ।' किन्तु, भगवान् तो मझे सोच-समझ कर ही कदम उठाने का परामर्श देते हैं। भन्ते ! मैं दूसरी बार भगवान की शरण जाता है, धर्म व भिक्षु-संघ की शरण जाता हूँ।
"गहपति ! तेरा घर दीर्घ-काल से निगंठों के लिए प्याऊ की तरह रहा है । घर आने पर उन्हें पिण्ड न देना चाहिए, ऐसा मत समझना।"
"मन्ते ! इससे मै और ही प्रसन्न-मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ हूँ। मैंने सुना था, श्रमण गौतम कहता है--'मुझे ही दान देना चाहिए, दूसरों को नहीं । मेरे ही श्रावकों को दान देना चाहिए, अन्य को नहीं। मुझे व मेरे श्रावकों को ही दान देने का महाफल होता है, दूसरों को देने से नहीं।' किन्तु, भगवान् तो मुझे निगंठों को भी दान देने के लिए कहते हैं। भन्ते ! हम भी इसे उपयुक्त समझते हैं। मैं तीसरी बार भगवान् की शरण जाता हूँ, धर्म व भिक्षु-संघ की भी।"
गौतम बुद्ध ने गृहपति उपालि की आनुपूर्वी कथा कही। शुद्ध वस्त्र जिस प्रकार सहजता से रंग पकड़ लेता है, उसी प्रकार उपालि को उसी आसन पर विमल विरज धर्मचक्ष उत्पन्न हुआ।
गौतम बुद्ध से अनुमति लेकर उपालि अपने घर आया। अपने द्वारपाल को उसने निर्देश दिया-"सौम्य ! आज से मैं निगंठों और निर्गठियों के लिए अपना द्वार बन्द करता हैं। भगवान् के भिक्षु-भिक्षुणी, उपासक और उपासिकाओं के लिए द्वार खोलता हूँ। यदि कोई निर्ग्रन्थ आये तो उसे द्वार पर रोक कर स्पष्ट शब्दों में मेरा यह निर्देश सुना देना। यदि वे पिण्ड चाहते हों तो उन्हें द्वार पर ही रोके रहना और घर से लाकर वहाँ दे देना।"
दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने जब यह सुना कि गृहपति उपालि श्रमण गौतम का श्रावक हो गया है, तो वह निगंठ नातपुत्त के पास आया और उन्हें सारी घटना सुनाई। निगंठ नातपुत्त ने दृढ़ता के साथ अपने उसी अभिमत को दुहराते हुए कहा- “गृहपति उपालि श्रमण गौतम का उपासक हो जाए, यह असम्भव है। श्रमण गौतम ही उसका श्रावक हो जाए, यही सम्भव है।"
दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने अपने अभिमत को तीन बार दुहराया और निगंठ नातपुत्त ने अपने अभिमत को। दीर्घ तपस्वी निगंठ नातपुत्त से अनुमति लेकर यह जानने के लिए कि
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