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इतिहास और परम्परा]
त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
उपालि श्रमण गौतम का श्रावक बना या नहीं, गृहपति के घर आया। द्वारपाल ने उसे वहीं रोका और कहा-'गृहपति उपालि आज से श्रमण गौतम का श्रावक हो गया है । उसने निगंठों की उपासना छोड़ दी है। यदि तुम्हें पिण्ड चाहिए, तो यहीं ठहरो। हम यहीं ला
"मुझे पिण्ड नहीं चाहिए' ; यह कहता हुआ दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ वापस मुड़ गया और निगंठ नातपुत्त के पास आया। उसने सविस्तार उक्त घटना सुनाते हुए कहा-"भन्ते ! मैंने पहले ही कहा था कि गृहपति उपालि को गौतम के साथ शास्त्रार्थ करने के लिए न भेजें। वह आवर्तनी माया जानता है । भन्ते ! वही हुआ । उपालि को श्रमण गौतम ने अपना श्रावक बना ही लिया है।"
निगंठ नातपुत्त ने अपने उसी मत को दुहराते हुए कहा-"तपस्विन् ! यह असम्भव है। उपालि श्रमण गौतम का श्रावक नहीं हो सकता। श्रमण गौतम ही उसका श्रावक हो सकेता है।"
दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ ने कहा-"भन्ते ! ऐसा नहीं है। वह तो उनका श्रावक हो गया है । मैं उसके घर से अभी लौटा हूँ। उसके दौवारिक ने मुझे स्पष्ट कहा है।"
दीर्घ तपस्वी निग्रंन्थ ने अपनी बात को दो-तीन बार दुहराया और निगंठ नातपुत्त ने अपनी बात को। अन्ततः निगंठ नातपुत्त ने तपस्वी से कहा- "तो मैं जाता हूँ और स्वयं ही यह जानने का प्रयत्न करूँगा कि उपालि श्रमण गौतम का श्रावक बना या नहीं ?"
निगंठ नात पुत्त निर्ग्रन्थों की महती परिषद् के साथ उपालि गृहपति के घर गए। द्वार. पाल ने दूर से आते हुए उन्हें देखा। आगे आकर मार्ग रोकते हुए उन्हें कहा-"भन्ते ! घर में प्रवेश न करें । गृहपति उपालि अब से श्रमण गौतम का श्रावक हो गया है। यदि पिण्ड चाहिए तो हम यहीं ला देंगे।"
निगंठ नातपुत्त ने कहा- "तुम गृहपति उपालि के पास जाओ और उसे सूचित करो, निगंठ नातपुत्त एक महत्ती निर्ग्रन्थ परिषद् के साथ द्वार के बाहर खड़े हैं और आपको देखना चाहते हैं।"
दौवारिक ने शीघ्रता से गृहपति उपालि को सूचना दी। उपालि ने दौवारिक को मा-शाला में आसन बिछाने का निर्देश दिया। दोवारिक ने वैसा ही किया । उपालि वहाँ माया और श्रेष्ठ व उत्तम आसन पर स्वयं बैठा । दौवारिक से कहा-"निगंठ नातपुत्त चाहें, तो उन्हें प्रवेश करने दो।"
द्वारपाल का संकेत पाकर निगंठ नातपुत्त महती परिषद् के साथ मध्य-शाला में आये। निगंठ नातपुत्त जब कभी गृहपति उपालि के घर आते थे, तो वह दूर से उन्हें देखते ही • उनके स्वागत में दौड़ पड़ता था। श्रेष्ठ व उत्तम आसनों को चद्दर से स्वयं पोंछ कर उन्हें
उन पर बैठाता था। आज उनके आगमन पर वह न खड़ा हुआ, न उनका स्वागत किया और न श्रेष्ठ व उत्तम आसनों के लिए उन्हें निवेदन ही किया। स्वयं बैठा ही रहा और निगंठ नातपुत्त जब समीप आये, तो सामान्य आसनों की ओर संकेत करते हुए केवल इतना ही कहा-“मन्ते ! आसन तैयार है, यदि चाहें, तो बैठे।"
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