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इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार
२०३ यश और अन्य चौपन कुमार
यश वाराणसी के श्रेष्ठी' का सुकमार पुत्र था। उसके निवास के लिए हेमन्त, ग्रीष्म व वर्षावास के लिए पृथक्-पृथक् प्रासाद थे । वर्षा ऋतु में वह चारों ही महीने वर्षाकालिक प्रासाद में वास करता था। वह कभी नीचे नहीं उतरता था। प्रतिदिन स्त्रियों द्वारा बादित वाद्यों की मधुर ध्वनि के बीच आनन्द मग्न रहता था। एक दिन यश कुलपुत्र अपने आवास में सो रहा था। सहसा उसकी आंखें खुलीं-दीपक के प्रकाश में उसने अपने परिजन को देखा, किसी के बगल में वीणा पड़ी है, किसी के गले में मृदङ्ग है, किसी के केश बिखरे पड़े हैं, किसी के मुह से लार टपक रही है तो कोई बर्रा रहा है। श्मशान-सदृश दृश्य देखकर उसके मन में घृणा उत्पन्न हुई। हृदय वैराग्य से भर गया। उसके मुह से सहसा उदान निकल पड़ा-"हा ! संतप्त !! हा ! पीड़ित !!"
सुनहले जूते पहन यश कुलपुत्र घर से बाहर आया। नगर-द्वार की सीमा को लाँघता हुआ वह ऋषिपत्तन के मृगदाव में पहुँचा। उस समय बुद्ध खुले स्थान में टहल रहे थे। उन्होंने दूर से ही आते हुए यश को देखा तो बिछे हुए आसन पर बैठ गये । यश ने उनके समीप जाकर अपने उसी उदान को दोहराया-"हा ! संतप्त !! हा! पीड़ित !!” बुद्ध ने कहा"यहां संतप्ति और पीड़ा नहीं है। आ, बैठ, तुझे धर्म बताता हूँ।" यश उस वाणी से बहुत आह्लादित हुआ। उसने सुनहले जूते उतारे और भगवान् के पास जाकर उन्हें अभिवादन कर, समीप बैठ गया। भगवान् ने उसे काम-वासनाओं के दुष्परिणाम, निष्कर्मता आदि का माहात्म्य बताया। जब उन्होंने उसे भव्यचित्त, मृदुचित्त, अनाच्छादितचित्त और प्रसन्नचित्त देखा, तो दुःख, समुदय-दुःख का कारण, निरोघ-दुःख का नाश और मार्ग-दुःख-नाश का उपाय बतलाया। कालिमा-रहित शुद्ध वस्त्र जिस प्रकार अच्छी तरह रंग पकड़ता है, वैसे ही यश कुलपुत्र को उसी आसन पर निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ।
यश कुलपुत्र की माता उसके प्रासाद में आई। अपने कुमार को जब वहाँ नहीं देखा, तो अत्यन्त खिन्न होकर श्रेष्ठी के पास आई। उससे सारा उदन्त कहा। गृहपति ने चारों ओर अपने दूत दौड़ाये और स्वयं भी उसके अन्वेषण के लिए घर से चला। सहसा ऋषिपत्तन के मगदाव की ओर निकल पड़ो। सनहले जूतों के चिन्ह देखकर उनके पीछे-पीछे लगा। बुद्ध ने दूर से ही श्रेष्ठी को अपनी ओर आते देखा। उनके मन में विचार हुआ, क्यों न मैं अपने योग-बल से यश को गृहपति के लिए अदृश्य कर दूं। उन्होंने ऐसा ही किया । श्रेष्ठी ने बुद्ध के पास जाकर पूछा-"भन्ते ! क्या भगवान् ने यश कुलपुत्र को कहीं देखा है ?"
बुद्ध ने कहा- गृहपति ! यहां बैठ ! यहाँ तू अपने पुत्र को देख सकेगा।" गृहपति बहुत हर्षित हुआ और वह अभिवादन कर एक ओर बैठ गया। बुद्ध ने उसे उपदेश दिया। श्रेष्ठी गृहपति को भी उसी आसन पर निर्मल धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ। धर्म में स्वतन्त्र हो वह बोला- "आश्चर्य ! भन्ते !! आश्चर्य ! भन्ते !! जिस प्रकार औंधे को सीधा कर दें,
१. श्रेष्ठी नगर का अवैतनिक पदाधिकारी होता था, जो कि धनिक व्यापारियों में से
बनाया जाता था।
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