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________________ २०२ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड : १ पत्तन पहुँचे | पंचवर्गीय भिक्षुओं ने उन्हें दूर से आते हुए देखा। सभी ने यह दृढ़ निश्चय किया - "गौतम बुद्ध अब संग्रहशील व साधना भ्रष्ट हो गया है; अत: उसका आदर-सत्कार न किया जाये, अभिवादन न किया जाये, सत्कारार्थ खड़े भी नहीं होना चाहिए और उसका पात्र, चीवर आदि भी नहीं लेना चाहिए । केवल आसन रख देना चाहिए। यदि इच्छा होगी, तो स्वयं ही बैठ जायेगा ।" किन्तु, ज्यों-ज्यों बुद्ध समीप आते गए, भिक्षुक अपनी प्रतिज्ञा पर स्थिर न रह सके । उनमें से किसी ने समीप जाकर उनका पात्र - चीवर लिया, किसी ने आसन बिछाया, किसी ने पानी, पादपीठ और पैर रगड़ने की लकड़ी लाकर पास में रखी । गौतम बुद्ध बिछाए हुए आसन पर बैठे | पैर घोये । भिक्षुओं ने उन्हें 'आवुस' कह कर पुकारा तो बुद्ध ने उन्हें कहा – “भिक्षुओ ! तथागत को नामग्रह तथा 'आवुस' कह कर नहीं पुकारा जाता । भिक्षुओ ! तथागत अर्हत् सम्यक् सम्बुद्ध है। सुनो, मैंने जिस अमृत को पाया है, उसका तुम्हें उपदेश करता हूँ । इस विधि से आचरण करने पर तुम्हें इसी जन्म में अतिशीघ्र अनुपम ब्रह्मचर्य - फल का उपलाभ होगा ।" 1 गौतम बुद्ध के कथन का प्रतिवाद करते हुए पंचवर्गीय भिक्षुओं ने कहा-' - "आवस ! गौतम ! उस साधना और दुष्कर तपस्या में भी तुम आर्यों के ज्ञान दर्शन की पराकाष्ठा की विशेषता व दिव्यशक्ति को नहीं पा सके, तो संग्रहशील और तपो भ्रष्ट होकर खाना-पीना आरम्भ कर देने पर तो सद्धर्म का बोध कैसे पा सकोगे ?" तथागत ने उनके कथन का प्रतिवाद किया और अपने अभिमत को दुहराया। पंचवर्गीय भिक्षुओं ने भी पुनः उसका प्रतिवाद किया । दो-तीन बार दोनों ही ओर से प्रतिवाद होते रहे । अन्ततः तथागत बोले - “भिक्षुओ ! इससे पूर्व भी क्या मैंने कभी इस प्रकार कहा है ?" पंचवर्गीय भिक्षु चिन्तन-लीन हो गए। उन्होंने कुछ क्षण बाद कहा - "नहीं, पहले तो कभी भी ऐसा नहीं कहा ।" तथागत ने कहा- "तो फिर मेरे कथन की ओर ध्यान क्यों नहीं देते ? मुझे अमृत का मार्ग मिल गया है। इस मार्ग को अपनाने से शीघ्र ही विमुक्ति मिलेगी ।" पंचवर्गीय भिक्षुओं को समझाने में तथागत सफल हुए। मिक्षु दत्तावधान होकर उपदेश सुनने में लीन हो गये । उस समय भगवान ने उन्हें सम्बोधन करते हुए सर्वप्रथम धर्मचक्र प्रवर्तन सूत्र कहा । उस समय उन्होंने कहा – “भिक्षुओ ! अति इन्द्रिय-भोग और अति देहदण्डन ; इन दो अन्तों (अतियों) का प्रव्रजितों को सेवन नहीं करना चाहिए । यही मध्यम मार्ग ( मध्यम प्रतिपदा) है ।" तब दृष्ट धर्म, विदित धर्म और मध्यम प्रतिपदा विशारद होकर कौण्डिन्य ने भगवान् से कहा- “भन्ते ! भगवान् के पास मुझे प्रव्रज्या मिले, उपसम्पदा मिले।" भगवान् ने कहा -' - " भिक्षु ! आओ । (यह ) धर्म सु-आख्यात है। अच्छी तरह दुःख के क्षय के लिए ब्रह्मचर्य ( यही उस आयुष्मान् की उपसम्पदा हुई । कालक्रम से अन्य चारों की भी उपसम्पदा हुई । तत्पश्चात् भगवान् ने पंचवर्गीय भिक्षुओं को उपदेश दिया, जिसको सुनकर भिक्षुओं का चित्त आस्रवों (मलों) से विलग हो मुक्त हो गया । उस समय लोक में छ: अर्हत् थे । श्रमण धर्म) का पालन करो ।” १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १ १ ६ व ७ के आधार से । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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