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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[ खण्ड : १
आवृत्त को अनावृत्त कर दे, भूले को मार्ग दिखा दे, अन्धकार में तैल-प्रदीप रख दे, जिससे कि सनेत्र रूप देख सकें, उसी प्रकार भगवान् ने भी अनेक पर्याय से धर्म को प्रकाशित किया है । मैं भगवान् की शरण जाता हूं, धर्म और भिक्षु संघ की भी । आज से मुझे साँजलि शरणागत उपासक ग्रहण करें ।" वह गृहपति ही संसार में बुद्ध, धर्म और संघ की शरण ग्रहण करने वाला प्रथम उपासक बना ।
पिता को दिए गए धर्मोपदेश को सुनते हुए व उस पर गम्भीर चिन्तन करते हुए यश कुलपुत्र का चित्त अलिप्त व आस्रवों — दोषों से मुक्त हो गया । बुद्ध ने इस स्थिति को पहिचाना। उनको दृढ़ विश्वास हो गया, किसी भी प्रयत्न से यश पूर्व अवस्था की तरह कामोपभोग करने के योग्य नहीं है। उन्होंने अपने योग-बल के प्रभाव का प्रत्याहरण कर लिया । यश अपने पिता को वहां बैठा दिखाई देने लगा | गृहपति ने उससे कहा – “तात ! तेरे वियोग में तेरी मां कलप रही है । वह शोकार्त्त हो रुदन कर रही है । उसे तू जीवनदान दे।"
यश ने बुद्ध की ओर निहारा । बुद्ध ने तत्काल गृहपति को कहा - " “गृहपति ! जिस प्रकार तूने अपूर्ण ज्ञान दर्शन से भी धर्म को देखा है, क्या वैसे ही यश ने भी देखा है ? दर्शन, श्रवण और प्रत्यवेक्षण से उसका चित्त अलिप्त होकर आस्रवों से मुक्त हो गया है। क्या यह पहले की तरह अब कामोपभोग में आसक्त होगा ?" गृहपति का सिर श्रद्धा से झुक गया और सहज ही शब्द निकले- - "भन्ते ! ऐसा तो नहीं होगा ।"
बुद्ध ने फिर कहा - "यश कुलपुत्र का मन अब संसार से उचट गया है, यह संसार के योग्य नहीं रहा है ।"
गृहपति ने निवेदन किया- "भन्ते ! यह यश कुलपुत्र के लाभ व सुलाभ के लिए हुआ है । आप इसे अनुगामी भिक्षु बनायें और मेरा आज का भोजन स्वीकार करें। "
बुद्ध से मौन स्वीकृति पाकर गृहपति वहां से उठा और अभिवादन पूर्वक प्रदक्षिणा देकर चला गया । यश कुलपुत्र ने उसके अनन्तर बुद्ध से प्रव्रज्या और उपसम्पदा की याचना की । बुद्ध ने कहा- - "भिक्षु ! आओ, धर्म सु-आख्यात है । अच्छी तरह दुःख-क्षय के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो । ।" और यह उस आयुष्मान् की उपसम्पदा हुई । उस समय लोक में सात अर्हत् थे ।
वाराणसी के श्रेष्ठी - अनुश्रेष्ठियों के कुल के कुमार विमल, सुबाहु, पूर्णजित् और गवांपति; आयुष्मान् यश के चार गृही मित्र थे । यश के प्रव्रजित हो जाने का उन्होंने संवाद सुना तो उनके भी चिन्तन उभरा, जिस धर्म-सम्प्रदाय में यश प्रव्रजित हुआ है, वह साधारण नहीं होगा। अवश्य ही कोई विशेष होगा। वे अपने आवासों से चले और भिक्षु यश के पास भिक्षु यश उन्हें बुद्ध के पास ले गया । अभिबुद्ध से उनका परिचय कराया और उपदिया। चारों ही मित्र धर्म में विशारद याचना की । बुद्ध ने तत्काल उनकी प्रार्थना चित्त आस्रवों से मुक्त हो गये । उस समय
पहुँचे । अभिवादन कर एक ओर खड़े हो गये । वादन कर वे एक ओर शान्त-चित्त बैठ गये । यश |देश देने की प्रार्थना की । बुद्ध ने उन्हें दिव्य उपदेश हुए और उन्होंने भी प्रव्रज्या व उपसम्पदा की स्वीकार की । तत्काल उपदेश सुनते ही उनके लोक में ग्यारह अर्हत् थे ।
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