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________________ इतिहास और परम्परा] भिक्षु-संघ और उसका विस्तार २०५ ग्रामवासी पच्चास गृही-मित्रों ने यश के प्रव्रजित होने का संवाद सुना तो वे भी भिक्ष संघ की प्रभावना से आकृष्ट होकर बुद्ध के पास आये और उपदेश सुनकर प्रवजित हो गये तथा उनके चित्त आस्रव-रहित हो गये । उस समय लोक में इकसठ अर्हत थे। वाराणसी में रहते-रहते बुद्ध ने उपर्युक्त साठ उपसम्पदाएं कीं। इन्हीं साठ भिक्षुओं में उन्होंने चरत भिक्खवे चारिका, चरत भिक्खवे चारिका का सुविख्यात सन्देश दिया । यहीं से उन्होंने समस्त भिक्षुओं को स्वयं उपसम्पदा देने की अनुज्ञा दी । लगता है, भिक्षु-संघ की वृद्धि के लिए चारिका-सन्देश और उपसम्पदा-निर्देश वरदान रूप हो गये। मद्रवर्गीय बुद्ध ने साठ भिक्षुओं को चारिका-सन्देश के प्रसारार्थ भिन्न-भिन्न दिशाओं में भेजा। वाराणसी से प्रस्थान कर स्वयं उरुवेला आये। मार्ग से हटकर एक उद्यान में वृक्ष के नीचे विश्राम लिया। मद्रवर्गीय तीस मित्र अपनी पत्नियों के साथ उसी उद्यान में क्रीड़ा कर रहे थे । एक मित्र के पत्नी नहीं थी: अतः उसके लिए एक वेश्या लाई गई। तीस यवक और युवतियां आमोद-प्रमोद में इतने मग्न हो गये कि वे अपनी सुध-बुध ही भूल गये । वेश्या ने उस अवसर का लाभ उठाया और वह आभषण आदि बहमुल्य वस्तुएं उठाकर चलती बनी। सुध में आने पर जब उन्हें ज्ञात हुआ, तो अपने मित्र के सहयोग में सभी मित्रों ने उद्यान के चप्पेचप्पे को छान डाला । वे घूमते हुए उस वृक्ष के नीचे भी पहुंच गये, जहाँ कि बुद्ध बैठे थे। सभी ने वह घटना बताई और वेश्या के उधर आगमन के बारे में उनसे प्रश्न किया। बुद्ध ने तत्काल प्रतिप्रश्न किया- "कुमारो! उस स्त्री की खोज को आवश्यक मानते हो या अपनी (आत्मा की) खोज को ?" सभी ने एक स्वर से उत्तर दिया- "हमारे लिए आत्मा की खोज ही सबसे उत्तम बुद्ध ने उन्हें उपदेश दिया। सभी भद्रवर्गीय मित्र धर्म में विशारद हो गये और उन्होंने बुद्ध से उपसम्पदा प्राप्त की। एक हजार परिव्राजक भगवान् बुद्ध उरुवेला पहुंचे। वहाँ उरुवेल काश्यप, नंदी काश्यप और गया काश्यप; तीन जटिल (जटाधारी) बंधु अग्निहोत्र पूर्वक तपश्चर्या कर रहे थे। उनके क्रमशः पाँच सौ, तीन सौ और दो सौ शिष्यों का परिवार था । बुद्ध उरुवेल काश्यप जटिल के आश्रम में पहुँचे । अग्निशाला में वास किया। प्रथम रात्रि में उन्होंने नाग का तेज खींचकर उसकी चण्डता समाप्त कर दी। १. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १-१-८ से १० के आधार से। २. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक, १-१-१३ के आधार से । ३. विस्तार के लिए देखें, 'परिषह और तितिक्षा' प्रकरण के अन्तर्गत 'चण्डनाग-विजय' । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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