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इतिहास और परम्परा]
भिक्षु-संघ और उसका विस्तार
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भगवान महावीर कैवल्य प्राप्ति के दूसरे दिन वहां पधारे और महासेन उद्यान में ठहरे। समवसरण की रचना हुई। नागरिक अहमहमिकया से उद्यान की ओर बढ़े जा रहे थे। देवों में भी उस ओर आने के लिए प्रतिस्पर्धा-सी लग रही थी। आकाश में देव-विमानों को देखकर ग्यारह ही विद्वान् फूले नहीं समा रहे थे । वे मन-ही-मन अपनी विद्वत्ता और यज्ञानुष्ठान-विधि की सफलता पर अतिशय प्रफुल्लित हो रहे थे। किन्तु, कुछ ही क्षणों में उनका वह प्रसाद विषाद में बदल गया। देव-विमान यज्ञ-मण्डल पर न रुक कर उद्यान की ओर बढ़ गये । विद्वानों के मन में खिन्नता के साथ जिज्ञासा हुई, ये विमान किधर गए ? यहां और कौन महामानव आया है ? चारों ओर आदमी दौड़े। शीघ्र ही ज्ञात हुआ, यहां सर्वज्ञ महावीर आए हुए हैं । देव-गण उन्हें वन्दना करने के लिए आये हैं। इन्द्रभूति के मन में विचार हुआ : "मेरे जैसे सर्वज्ञ की उपस्थिति में यह दूसरा सर्वज्ञ यहां कौन उपस्थित हुआ है ? भोले मनुष्य को तो ठगा भी जा सकता है, किन्तु, इसने तो देवों को भी ठग लिया है। यही कारण है कि मेरे जैसे सर्वज्ञ को छोड़कर वे इस नए सर्वज्ञ के पास जा रहे हैं।"
विचारमग्न इन्द्रभूति देवताओं के बारे में भी संदिग्व हो गए । उन्होंने सोचा; सम्भव है, जैसा यह सर्वज्ञ है, वैसे ही ये देव हों। किन्तु, कुछ भी हो, एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकतीं। मेरे रहते हुए कोई दूसरा व्यक्ति सर्वज्ञता का दम्भ भरे, यह मुझे स्वीकार नहीं है।
महावीर को वन्दन कर लौटते हुए मनुष्यों को इन्द्रभूति ने देखा और उनसे महावीर के बारे में नाना प्रश्न पूछे-"क्या तुमने उस सर्वज्ञ को देखा है ? कैसा है वह सर्वज्ञ ? उसका स्वरूप कैसा है ?"
इन्द्रभूति के प्रश्न से प्रेरित होकर जनता ने महावीर के गुणों की भूरि-भूरि व्याख्या की। इन्द्रभूति के अध्यवसाय हुए ---"वह अवश्य ही कोई कपट मूर्ति-ऐन्द्रजालिक है। उसने जनता को अपने जाल में अच्छी तरह फंसाया है ; अन्यथा इतने लोग भ्रम में नहीं फंसते । मेरे रहते हुए कोई व्यक्ति इस तरह गुरुडम जमाये, यह नहीं हो सकता । मेरे समक्ष बड़े-बड़े वादियों की तूती बन्द हो गई तो यह कौनसी हस्ती है ? मेरी विद्वत्ता की इतनी धाक है कि बहुत सारे विद्वान् तो अपनी मातृभूमि छोड़ कर भाग खड़े हुए। सर्वज्ञत्व का अहं भरने वाला मेरे समक्ष यह कौन-सा किंकर है ?"
__भूमि पर उन्होंने अपने पैर से एक प्रहार किया और रोषारुण वहां से उठे। मस्तक पर द्वादश तिलक किए। स्वर्ण यज्ञोपवीत धारण किया। पीत वस्त्र पहने। दर्भासन और कमण्डलु लिया। पांच सौ शिष्यों से परिवृत्त इन्द्रभूति वहां से चले और जहां महावीर थे, वहां आए।
महावीर ने इन्द्रभूति को देखते ही कहा-“गौतम गौत्री इन्द्रभूति ! तुझे जीवात्मा के सम्बन्ध में सन्देह है ; क्योंकि घट की तरह आत्मा प्रत्यक्षतः गृहीत नहीं होती है। तेरी धारणा है कि जो अत्यन्त अप्रत्यक्ष है, वह इस लोक में आकाश-पुष्प के सदृश ही है।"
___इन्द्रभूति इस अगम्य सर्वज्ञता से प्रभावित हुए। सुदीर्घ आत्म-चर्चा से उनका मनोगत सन्देह दूर हुआ। अपनी शिष्य-मण्डली सहित उन्होंने निर्ग्रन्थ-प्रव्रज्या स्वीकार की।
एक-एक कर इसी क्रम से दसों ब्राह्मण विद्वान् आए। मनोगत शंकाओं का समाधान पाया और अपनी-अपनी मण्डली के साथ निर्ग्रन्थ धर्म में दीक्षित हुए। महावीर के श्रमण संघ
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