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________________ १७८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ में वे गणधर कहलाए। इस प्रकार महवीर का धर्म संघ चम्मालीस सौ ग्यारह ब्राह्मणदीक्षाओं से प्रारम्भ हुआ । इन्द्रभूति गौतम के नाम से प्रसिद्धि पाए । सुधर्मा महावीर निर्माण के पश्चात् प्रथम पट्टधर बने । दिगम्बर मान्यता के अनुसार गौतम ही महावीर के प्रथम पट्टधर थे । ' चन्दनबाला बौद्ध संघ में कुछ समय तक स्त्री-दीक्षा वर्जित रही । निर्ग्रन्थ संघ में महावीर के प्रथम समवसरण में ही स्त्री-दीक्षायें हुईं । चन्दनबाला प्रथम शिष्या थी और वह छत्तीस हजार के बृहत् श्रमणी - संघ में भी सदैव प्रवर्तिनी ( अग्रणी ) रही । महावीर का छः मास का तप अभिग्रह मूलक था । उनका अभिग्रह था : “द्रव से उड़द के बाकुले हों; शूर्प के कोने में हों ; क्षेत्र से - दाता का एक पैर देहली के अन्दर व एक बाहर हो ; काल से - भिक्षाचरी की अतिक्रांत बेला हो ; भाव से - राजकन्या हो, दासत्व प्राप्त हो, श्रृंखला-बद्ध हो ; सिर से मुण्डित हो, रुदन करती हो, तीन दिन की उपोसित हो ; ऐसे संयोग में मुझे भिक्षा लेना है । अन्यथा छः मास तक मुझे भिक्षा नहीं लेना है ।" छः मास में जब पाँच दिन अवशिष्ट थे, तब चन्दनबाला के हाथों यह अभिग्रह पूरा हुआ । चन्दनबाला की जीवन-गाथा आदि मध्य व अन्त में बहुत ही घटनात्मक है । वह चम्पा के राजा दधिवाहन व धारिणी की इकलौती कन्या थी । उसके दो नाम थे-- चन्दनबाला और वसुमती । लाड़-प्यार में ही उसका शैशव बीता। कौशाम्बी के राजा शतानीक ने एक बार जल-मार्ग से सेना लेकर बिना सूचित किये एक ही रात में चम्पा को घेर लिया । पूर्व सज्जा के अभाव में दधिवाहन की हार हुई। शतानीक के सैनिकों ने निर्भय होकर दो प्रहर तक चम्पा के नागरिकों को यथेच्छ लूटा। एक रथिक राजमहलों में पहुँचा। वह रानी धारिणी और राजकुमारी चन्दनबाला को अपने रथ में बैठा कर भाग निकला । शतानीक विजयी होकर कौशाम्बी लौट आया । रथिक धारिणी और चन्दनबाला को लेकर निर्जन अरण्य में पहुँच गया। वहाँ उसने रानी के साथ बलात्कार का प्रयत्न किया । रानी ने उसे बहुत समझाया, किन्तु, उसकी सविकार मनोभावना का परिष्कार न हो सका । जब वह मर्यादा का अतिक्रमण कर रानी की ओर बढ़ ही आया तो उसने अपने सतीत्व की रक्षा के निमित्त जीभ खींच कर प्राणों की आहुति दे दी और रथिक की दुश्चेष्टा को सर्वथा १. गणधरवाद ; आवश्यक नियुक्ति, गा० १७ ६५ के आधार पर । २. सामी य इमं एतारूवं अभिग्गहं अभिगेण्हति, चउव्विहं दव्वतो ४, दव्वतो कुंमासे सुप्पकोणेणं, खित्तओ एलुयं विक्खंभइत्ता, कालओ नियत्तेसु भिक्खायरेसु, भावतो जदि रायघूया दासत्तणं पत्ताणियलबद्धा मुंडियसिरा रोयमाणी अट्ठभत्तिया, एवं कप्पति, सेसंण कप्पति, कालो य पोसबहुल पाडिवओ । एवं अभिग्गहं घेणं कोसंबीए अच्छति । - आवश्यक चूर्णि, प्रथम भाग, पत्र ३१६-३१७; आवश्यक निर्युक्ति, मलयगिरिवृत्ति पत्र सं २४-२६५; श्री कल्पसूत्रार्थ प्रबोधिनी, पृ० १५४ । Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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