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इतिहास और परम्परा]
भिक्षु संघ और उसका विस्तार
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"जीव के बारे में भी स्कन्दक ! द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से चिन्तन करो । द्रव्य की अपेक्षा से जीव एक और सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा से यह असंख्य प्रदेशी है, पर, सान्त है । काल की अपेक्षा से यह कभी नहीं था, कभी नहीं है, कभी नहीं रहेगा ; ऐसा नहीं है; अत: नित्य है और इसका अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से यह अनन्त ज्ञान पर्यवरूप है, अनन्त दर्शन - पर्यवरूप है, अनन्त अगुरु-लघु - पर्यवरूप है और इसका अन्त नहीं है । इस प्रकार स्कन्दक ! द्रव्य व क्षेत्र की अपेक्षा से जीव अन्त युक्त है और काल व भाव की अपेक्षा से अन्त-रहित है ।
"स्कन्दक ! तुझे यह भी विकल्प हुआ था कि मोक्ष सान्त है या अनन्त ? इसे भी तुझे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से जानना होगा । द्रव्य की अपेक्षा से मोक्ष एक है और सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा से ४५ लाख योजन आयाम - विष्कंभ है और इसकी परिधि १ करोड़ ४२ लाख ३० हजार २४६ योजन से कुछ अधिक है । इसका छोर:- अन्त है । काल की अपेक्षा से यह नहीं कहा जा सकता कि किसी दिन मोक्ष नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा । भाव की अपेक्षा से भी यह अन्त-रहित है। तात्पर्य है, द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से मोक्ष अन्त-युक्त है और काल व भाव की अपेक्षा से अन्त- रहित ।
"स्कन्दक ! तुझे यह भी शंका हुई थी कि सिद्ध अन्त युक्त है या अन्त-रहित । इस बारे में भी तुझे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से सोचना होगा । द्रव्य की अपेक्षा से सिद्ध एक है और अन्त - युक्त है। क्षेत्र की अपेक्षा से सिद्ध असंख्य प्रदेश - अवगाढ़ होने पर भी अन्तयुक्त है । काल की अपेक्षा से सिद्ध की आदि तो है, पर, अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से सिद्ध ज्ञान-दर्शन-पर्यवरूप है और उसका अन्त नहीं है ।
"स्कन्दक ! मरण के बारे में भी तू संदिग्ध है न ? तेरे मन में यह ऊहापोह है न कि किस प्रकार के मरण से संसार घटता है और किस प्रकार के मरण से संसार बढ़ता है ? मरण दो प्रकार का है : १. बाल मरण २. पण्डित मरण ।"
स्कन्दक — "भन्ते ! बाल मरण किस प्रकार होता है ?"
महावीर — “स्कन्दक ! उसके बारह प्रकार हैं : १. भूख से तड़पते हुए मरना, २ . इन्द्रियादिक की पराधीनता पूर्वक मरना, ३ . शरीर में शस्त्रादिक के प्रवेश से या सन्मार्ग से भ्रष्ट होकर मरना, ४ . जिस गति में मरे, उसका ही आयुष्य बाँधना, ५. पर्वत से गिर कर मरना, ६. वृक्ष से गिर कर मरना, ७. पानी में डूबकर मरना, ८. अग्नि में जलकर मरना, ६ विष खाकर मरना, १०. शस्त्र प्रयोग से मरना, ११. फांसी लगाकर मरना, १२. गृद्ध आदि पक्षियों से नुचवाकर मरना । स्कन्दक ! इन बारह प्रकारों से मरकर जीव अनन्त बार नैरयिक भाव को प्राप्त होता है । वह तिर्यक् गति का अधिकारी होता है और चतुर्गत्यात्मक संसार को बढ़ाता है । मरण से संसार का बढ़ना इसी को कहते हैं । "
स्कन्दक - "भन्ते ! पण्डित मरण किसे कहते हैं ?"
महावीर —''स्कन्दक ! वह दो प्रकार से होता है : १. पादपोयंगमण और २. भक्त प्रत्याख्यान । पादपोयंगमण भी दो प्रकार का है : १. निर्धारिम और २. अनिहरिम । भक्तप्रत्याख्यान भी दो प्रकार है : १. निर्धारिम और २. अनिहरिम । जो साधु उपाश्रय में पादपोयंगमण या भक्त - प्रत्याख्यान आरम्भ करते हैं, पण्डित मरण के बाद उनका शव उपाश्रय
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