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१८८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड : १ गौतम ने पूछा- "भन्ते ! मैं किस पूर्व परिचित से मिलंगा?" महावीर ने कहा-"कात्यायन गोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक से।" गौतम ने पुनः प्रश्न किया- “भन्ते ! वह परिव्राजक मुझे कब व कैसे मिलेगा ?"
महावीर ने उत्तर दिया-श्रावस्ती में पिंगल निर्ग्रन्थ ने उससे कुछ प्रश्न पूछे हैं। वह उत्तर न दे सका; अतः अपने तापसीय उपकरणों को साथ लिए यहाँ आने के लिए प्रस्थान कर चुका है। उसने बहुत सारा मार्ग लाँघ दिया है । वह मार्ग के बीच है। शीघ्र ही वह यहाँ पहुँच जायेगा और उसे तू आज ही देखेगा।"
गौतम-क्या उसमें आपके शिष्य होने की योग्यता है ?" महावीर-"हाँ, उसमें यह योग्यता है और निश्चित ही वह मेरा शिष्य हो जायेगा।"
महावीर और गौतम का वार्तालाप चल ही रहा था कि उसी समय स्कन्दक परिव्राजक सामने से आता हुआ दृष्टिगोचर हुआ। गौतम उठे, उसके सामने गये और बोले"हे स्कन्दक ! तुम्हारा स्वागत है, सुस्वागत है, अन्वागत है। मागध ! क्या यह सच है कि पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुमसे कुछ प्रश्न पूछे और तुम उनके उत्तर न दे सके ; अतः यहाँ आ रहे हो ?"
गौतम से अपने मन की गुप्त बात सुन स्कन्दक परिव्राजक अत्यन्त विस्मित हुआ। उसने पूछा- “गौतम ! ऐसा वह कौन ज्ञानी या तपस्वी है, जिसने मेरा गुप्त रहस्य इतना शीघ्र बता दिया ?"
गौतम ने एक सात्त्विक गौरव की अनुभूति के साथ कहा-"स्कन्दक ! मेरे धर्मगुरु, धर्मोपदेशक श्रमण भगवान महावीर अनुत्तर ज्ञान और दर्शन के धारक हैं । वे अरिहन्त हैं, जिन हैं, केवली हैं, त्रिकालज्ञ हैं । वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हैं। उनसे तुम्हारा मानसिक अभिप्राय तनिक भी अज्ञात नहीं रह सकता।"
स्कन्दक परिव्राजक ने गौतम के समक्ष भगवान महावीर को वन्दन करने का अपना अभिप्राय व्यक्त किया और वह उनके साथ महावीर के समीप आया। दर्शन मात्र से ही वह सन्तुष्ट हो गया। उसने श्रद्धापूर्वक तीन प्रदक्षिणा की और वन्दना की। महावीर ने स्कन्दक को सम्बोधित करते हुए कहा--"मागध ! श्रावस्ती में रहने वाले पिंगल निर्ग्रन्थ ने तुझ से लोक जीव, मोक्ष, सिद्ध आदि सान्त हैं या अनन्त; ये प्रश्न पूछे ?" स्कन्दक ने महावीर का कथन स्वीकार किया। महावीर ने उसे उत्तर देना आरम्भ किया-"स्कन्दक! द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव की अपेक्षा से यह लोक चार प्रकार का है। द्रव्य की अपेक्षा से यह एक है और सान्त है । क्षेत्र की अपेक्षा से यह असंख्य कोटाकोटि योजन आयाम-विष्कंभ वाला है। इसकी परिधि असंख्य कोटाकोटि योजन बताई गई है। इसका अन्त–छोर है। काल की अपेक्षा से यह किसी दिन न होता हो, ऐसा नहीं है। किसी दिन नहीं था, ऐसा भी नहीं है। किसी दिन नहीं रहेगा, ऐसा भी नहीं है । यह सदैव था, सदैव है और सदैव रहेगा यह ध्र व, नियत, शाश्वत, अक्षत, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । इसका अन्त नहीं है । भाव की अपेक्षा से यह अनन्त वर्ण-गंध-रस-स्पर्श-पर्यवरूप है। अनन्त संस्थान पर्यव, अनन्त गुरुलघु-पर्यव तथा अनन्त अगुरुलघु-पर्यवरूप है।
__ "स्कन्दक ! द्रव्य और क्षेत्र की अपेक्षा से यह लोक सान्त है तथा काल और भाव की अपेक्षा से अनन्त ; अतः लोक सान्त भी है और अनन्त भी।
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