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________________ इतिहास और परम्परा समसामयिक धर्म-नायक आत्माद्वैतवादी ___ आत्माद्वैतवादी'-आर्द्र कमुनि ! अपने दोनों का धर्म समान है। वह भूत में भी था और भविष्य में भी रहेगा। अपने दोनों धर्मों में आचार-प्रधान शील तथा ज्ञान को महत्त्व दिया गया है। पुनर्जन्म की मान्यता में भी कोई भेद नहीं है। किन्तु, हम एक अव्यक्त, लोकव्यापी, सनातन, अक्षय और अव्यय आत्मा को मानते हैं। वह प्राणीमात्र में व्याप्त है, जैसे-चन्द्र तारिकाओं में। आईक मुनि-यदि ऐसा हो तो फिर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व दास; इसी प्रकार कीड़े, पंखी, सर्प, मनुष्य व देव आदि भेद ही नहीं रहेंगे और वे पृथक्-पृथक् सुख-दुःख भोगते हुए इस संसार में भटकेंगे भी क्यों ? परिपूर्ण कैवल्य से लोक को समझे बिना जो दूसरों को धर्मोपदेश करते हैं, वे अपना और दूसरों का नाश करते हैं। परिपूर्ण कैवल्य से लोक-स्वरूप को समझ कर तथा पूर्ण ज्ञान में समाधियुक्त बन कर जो धर्मोपदेश करते हैं, वे स्वयं तर जाते हैं और दूसरों को भी तार लेते हैं। इस प्रकार तिरस्कार-योग्य ज्ञानी आत्माद्वैतवादियों को और सम्पूर्ण ज्ञान, दर्शन, चारित्र्य-युक्त जिनों को अपनी समझ में समान बतला कर हे आयुष्मन् ! तू अपनी ही विपरीतता प्रकट करता है। हस्ती तापस हस्ती तापस-हम एक वर्ष में एक बड़े हाथी को मार कर अपनी आजीविका चलाते हैं। ऐसा हम अन्य समस्त प्राणियों के प्रति अनुकम्पा-बुद्धि रखते हुए करते हैं। आर्द्रक मुनि-एक वर्ष में एक ही प्राणी मारते हो और फिर चाहे अन्य जीवों को नहीं भी मारते, किन्तु, इतने भर से तुम दोष मुक्त नहीं हो जाते । अपने निमित्त एक ही प्राणी का वध करने वाले तुम्हारे में और गृहस्थों में थोड़ा ही अन्तर है। तुम्हारे जैसे आत्म-अहित करने वाले मनुष्य कभी केवल ज्ञानी नहीं हो सकते। तथारूप स्वकल्पित धारणाओं के अनुसरण करने की अपेक्षा, जिस मनुष्य ने ज्ञानी के आज्ञानुसार मोक्ष-मार्ग में मन, वचन, काया से अपने आपको स्थित किया है तथा जिसने दोषों से अपनी आत्मा का संरक्षण किया है और इस संसार-समुद्र को तैरने के साधन प्राप्त किये हैं; वहीं पुरुष दूसरों को धर्मोपदेश दे। ____सामाफल सुत्त की तरह सूयगड़ांग का यह अद्दइज्जणाम अध्ययन पर-मत-निराकरण का है; अत: इसमें भी उसी प्रकार सभी इतर मतों का निरसन किया गया है। प्रकरण की मूल गाथाओं में अधिकांशतः चर्चित मतों के नाम नहीं हैं। व्याख्याकारों ने भावानुगत संज्ञायें दी हैं। गाथा २८ में बुद्धाण तं कप्पति पारणाए का प्रयोग हुआ है। वहाँ अभिप्रेत है; १. टीकाकार श्री शीलांकाचार्य ने(२-६-४६)इसे एकदण्डी कहा है । डा० हरमन जेकोबी ने अपने अंग्रेजी अनुवाद (S.B.E. vol XLV,I. 417 n.) में इसे वेदान्ती कहा है । प्रस्तुत मान्यता को देखते हुए डा० जेकोबी का अर्थ संगत लगता है। टीकाकार ने भी अगली गाथा में यही अर्थ स्वीकार किया है। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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