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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन खण्ड: १ निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम सबके पीछे लिखा गया है। इसका शायद यही कारण हो सकता है कि उनके प्रतिस्पधियों में ज्ञातपुत्र महावीर सबसे पीछे के प्रतिस्पर्धी थे।" बुद्ध के प्रतिस्पधियों में महावीर का नाम अन्तिम हो, तो भी उसका यह अर्थ तो नहीं हो जाता कि महावीर बुद्ध से छोटे थे। प्रत्युत बौद्ध पिटकों के तथाप्रकार के प्रसंग तो इसी बात की ओर संकेत करते हैं कि उनके छहों प्रतिस्पर्धी उनसे पूर्व ही बहुत ख्याति और प्रभाव अजित कर चुके थे। वस्तुस्थिति यह है कि मुनि कल्याण विजयजी ने निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम सर्वत्र अन्तिम ही होने का जो लिखा है, वह भी यथार्थ नहीं है। ऐसे मी अनेक स्थल हैं, जहाँ निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम अन्तिम नहीं है । महावीर अधेड़-बुद्ध युवा मुनि कल्याण विजयजी का कहना है : 'अजातशत्रु के सम्मुख उसके अमात्य ने महावीर के सम्बन्ध में कहा है : 'महाराज ! यह निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र संघ और गण के मालिक हैं। गण के आचार्य, ज्ञानी और यशस्वी तीर्थङ्कर हैं। साधुजनों के पूज्य और बहुत लोगों के श्रद्धास्पद हैं। ये चिर-दीक्षित और अवस्था में अधेड़ हैं। इससे महावीर का अधेड़ और बुद्ध का वृद्ध होना सिद्ध होता है।" इस प्रसंग को यदि समग्र रूप से देखा जाए तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि महावीर अधेड़ थे और बुद्ध युवा ; क्योंकि यहां मंत्री महावीर की विशेषताओं का वर्णन कर रहा है और विशेषता के प्रसंग में 'अधेड़' कहना उनकी ज्येष्ठता का सूचक है। दूसरी बात दीघनिकाय के इसी प्रसंग में गोशालक, संजय आदि सभी को चिर-दीक्षित और अधेड़ कहा गया है। केवल बुद्ध के लिए इन विशेषणों का प्रयोग नहीं किया गया है । इससे भी यही प्रमाणित होता कि बुद्ध इन सबकी अपेक्षा में युवा थे। १. वीर निर्वाण संवत् और काल-गणना, पृ०३। २. संयुत्त निकाय, दहरसुत्त, ३-१-१ में निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र का नाम तीसरा है; दीघनिकाय, __ सामञफल सुत्त, १-२ (राहुल सांकृत्यायन द्वारा अनूदित, पृष्ठ २१) में पांचवां है। ३. वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० ४। । ४. अयं देव निगंठो नातपुत्तो संघी चेव गणी च गणाचारियो च जातो यसस्सी तित्थकरो साधुसंमतो बहुजनस्स रत्तने चिरपब्बजितो अद्धगत वयो अनुपत्ताति।। -दीघ निकाय, भाग १, पृ० ४८, ४६ (वीर निर्वाण सम्वत् और जैन काल-गणना, पृ० ४ से उद्धृत)। ५. मूल पालि में 'अद्धगतो' और 'वयोअनुपत्ता' ये दो शब्द व्यवहृत होते रहे हैं। पिटकों (विनय पिटक, चुल्लवग्ग, संघ-भेदक खंधक, देवदत्त सुत्त और सुत्तनिपात, सभिय सुत्त) में भी यह शब्द-प्रयोग बहुलता से मिलता है। श्री राहुल सांकृत्यायन ने इनका अनुवाद 'अध्वगत' और 'वयः-अनुप्राप्त किया है (उदाहरणार्थ, देखें, बुद्ध चर्या, पृ० १३७ । राइस डेविड्स ने दीघ निकाय के अंग्रेजी अनुवाद में 'old and wellstricken in years' किया है। (Dialogues of Buddha, vol I, p. 66). Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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