________________
इतिहास और परम्परा ]
आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता
४५५
इसके साथ ही तृतीय पाराजिका की कथा, निदान, पुद्गल, प्रज्ञप्ति, अनुप्रज्ञप्ति, आपत्ति और अनापत्ति भी पूछी और उपालि ने उन सबका सविस्तार उत्तर दिया । "उपालि ! चतुर्थ पाराजिका कहाँ प्रज्ञापित हुई ?'
"भन्ते ! वैशाली में ।"
" किसको लक्षित कर ?"
"वग्गु-मुदा-तीरवासी भिक्षुओं को लक्षित कर ।" "किस विषय में ?"
"उत्तर मनुष्य धर्म (दिव्य शक्ति) में ।"
आयुष्मान् महाकाश्यप ने इसके साथ ही चतुर्थ पाराजिका की कथा, निदान, पुद्गल, प्रज्ञप्ति, अनुप्रज्ञप्ति, आपत्ति और अनापत्ति भी पूछी और उपालि ने उनका सविस्तार उत्तर दिया । इसी प्रकार महाकाश्यप ने भिक्षु भिक्षुणियों के विनयों को पूछा और उपालि ने उन सबका उत्तर दिया ।
ऐतिहासिक दृष्टि
प्राचीन धर्म-ग्रन्थों के रचना-सम्बन्ध से पारम्परिक, कथन और गवेषणात्मक ऐतिहासिक, कथन बहुधा भिन्न-भिन्न ही तथ्य प्रस्तुत करते हैं । विनय पिटक की भी यही स्थिति है । कुछ एक विद्वानों की राय में तो प्रथम संगीति की बात ही निर्मूल है ।
ओल्डनवर्ग का कथन है कि महापरिनिव्वाण सुत्त में उक्त संगीति के विषय में कोई उल्लेख नहीं है; अतः इसकी बात एक कल्पनामात्र ही रह जाती है। फेंक भी इसी बात का समर्थन करते हुए कहते हैं- - प्रथम संगीति को मानने का आधार केवल चुल्लवग्ग का ग्यारहवाँ, बारहवाँ प्रकरण है । यह आधार नितान्त पारम्परिक है और इसका महत्त्व मनगढ़न्त कथा से अधिक नहीं है ।"२ परन्तु डॉ० हर्मन जेकोबी उक्त कथन से सहमत नहीं हैं । उनका कहना है, महापरिनिव्वाण सुत्त में इस प्रसंग का उल्लेख करना कोई आवश्यक ही नहीं था। कुछ विद्वान् यह भी मानते हैं कि चुल्लवग्ग के उक्त दो प्रकरण वस्तुतः महापरिनिष्वाण सुत्त के ही अंग थे और किसी समय चुल्लवग्ग के प्रकरण बना दिये गये हैं । * वस्तुस्थिति यह है कि चुल्लवग्ग के उक्त दो प्रकरण भाव- भाषा की दृष्टि से उसके साथ नितान्त असम्बद्ध से हैं | महापरिनिव्वाण सुत्त के साथ भाव-भाषा की दृष्टि से उनका मेल अवश्य बैठता है ।
3
१. Introduction to the Vinaya Pitaka, XXIX, Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellschaft, 1898, pp. 613-94.
2. Journal of the Pali Text Society, 1908, pp. 1- 80.
३. Zeitschrift der Deutschen Morgenlandischen Gesellschaft, 1880, p. 184 ff.
४. Finst & Obermiller, Indian Historical Quarterly, 1923; S. K. Dutt, Early Buddhist Monachism, p. 337.
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org