________________
१६२
आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड ! १
उरुवेल ने सहर्ष स्वीकृति दे दी। बुद्ध ने अग्निशाला में तृण बिछाये, आसन लगाया, शरीर को सीधा किया और स्मृति को स्थिर कर बैठ गये । नागराज ने उन्हें वहाँ बैठे देखा। वह क्रुद्ध हो, धुआँ उगलने लगा । बुद्ध के मन में अध्यवसाय उत्पन्न हुआ, नागराज के चर्म, मांस, नस, अस्थि, मज्जा आदि को किसी प्रकार की बिना क्षति पहुंचाये इसके तेज को खींच लूं। उन्होंने अपने योग-बल से वैसा ही किया। स्वयं धुआँ उगलने लगे । नागराज उनके तेज को सह न सका । वह प्रज्वलित हो उठा। बुद्ध भी तेजमहाभूत में समाधिस्थ होकर प्रज्वलित हो उठे। दोनों के ज्योति रूप होने से अग्निशाला प्रज्वलित-सी प्रतीत होने लगी। उरुवेल काश्यप ने अग्निशाला को चारों ओर से घेर लिया और वह कहने लगा-"हाय ! परम सुन्दर महाश्रमण नाग द्वारा मारा जा रहा है।"
रात बीत गई। प्रातःकाल बुद्ध ने नागराज को बिना किसी प्रकार की क्षति पहुँचाये, उसका सारा तेज खींच लिया और उसे पात्र में रखकर उरुवेल काश्यप को दिखाते हुए कहा-“मैंने तेरे नाग का तेज खींच लिया है। अब यह निस्तेज है। किसी को भी हानि नहीं पहुँचा सकेगा।"
देव-परिषह महावीर की जीवन-चर्या में संगम देव-कृत परिषह बहुत प्रसिद्ध हैं और बुद्ध की जीवन-चर्या में मार देव-कृत परिषह । दोनों ही प्रकार के परिषहों की समानता विस्मयोत्पादक है।
संगम-देव
महावीर ने सानुलट्ठिय से दृढ़ भूमि की ओर विहार किया। पेढ़ाल गांव के समीपवर्ती पेढ़ाल उद्यान में पोलास नामक चैत्य में आये और अट्ठम तप आरम्भ किया। एक शिला पर शरीर को कुछ झुकाकर, हाथों को फैलाया। किसी रूक्ष पदार्थ पर दृष्टि को केन्द्रित कर व दढ़मनस्क होकर वे निर्मिमेष हो गये। यह महाप्रतिमा तप कहलाता है। महावीर वहाँ एक रात्रि ध्यानस्थ रहे। उनकी इस उत्कृष्ट ध्यान-विधि को देखकर इन्द्र ने अपनी सभा को सम्बोधित करते हए कहा-"भरत क्षेत्र में इस समय महावीर के सदृश ध्यानी और धीर पुरुष अन्य कोई नहीं है। कोई भी शक्ति उन्हें अपने कायोत्सर्ग से विचलित नहीं कर सकती।" देवों में इस प्रकरण से बड़ा हर्ष हुआ। संगम को यह अच्छा नहीं लगा। उसने इन्द्र के कथन का प्रतिवाद करते हुए कहा-“ऐसा कोई भी देहधारी नहीं हो सकता, जो देव-शक्ति के सम्मुख नत न हो।" संगम ने इन्द्र के कथन को चुनौती देते हुए आगे कहा- "मैं उन्हें विचलित कर सकता हूँ। मेरी शक्ति के समक्ष उन्हें झुकना पड़ेगा।"
इन्द्र ने अपने पक्ष को पुष्ट करते हुए कहा-"ऐसा न कभी हुआ और न कभी हो सकता है कि ध्यानस्थ तीर्थङ्कर किसी आघात या तर्जन से विचलित हो जायें।"
संगम ने दृढ़ता के साथ कहा- मैं उनकी परीक्षा लूंगा।"
१. विनय पिटक, महावग्ग, महाखन्धक ।
____Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org