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________________ इतिहास और परम्परा] परिषह और तितिक्षा १६१ कोई प्रभाव न पड़ा। महावीर उसी तरह अडोल ध्यान-मुद्रा में लीन रहे। उसे उनका रुधिर बहुत सुस्वादु लगा। वह उसे पीने लगा। साथ-ही-साथ उसके हृदय में कौतुहल पूर्वक यह जिज्ञासा भी हुई कि आखिर क्या कारण है, मेरे विष का कोई असर नहीं हो रहा हैं। विचारमग्न होते ही उसे जाति-स्मरण ज्ञान मिला। उसने उसके बल पर जाना, ये तो चौबीसवें तीर्थकर महावीर हैं। मैंने तो यह आशातना कर घोर अपराध कर डाला । वह उनके शरीर से नीचे उतरा, उनके चरणों में लोटने लगा और अपने इस दुष्कृत्य, इस जीवन के दुष्कृत्य व पूर्व भव के क्रोध जनित दुष्कृत्यों का स्मरण, उनकी आलोचना व गहीं करता हुआ, अपनी उसी बांबी में जाकर शरीर की ममता को छोड़ कर अनशन पूर्वक रहने लगा। उसने मनुष्यों को डसना छोड़ दिया; अन्य छोटे-बड़े जीव-जन्तुओं को सताना छोड़ दिया, अपने शरीर की सार-सम्भाल को भी सर्वथा छोड़ दिया और आत्म-भाव में रमण करता हुआ वहाँ रहने लगा। निषेध करते हुए भी जब महावीर को उसी मार्ग से प्रस्थान करते हुए लोगों ने देखा तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ। कुछ व्यक्ति बहुत दूर तक उनके पीछे भी गए। जब उन व्यक्तियों ने सर्प की उपयुक्त सारी घटना देखी तो उनके भी आश्चर्य काठिकाना न रहा। भयंकर विषधर का इस प्रकार शान्त हो जाना सचमच ही एक अनोखी घटना थी। लोगों ने वापिस आकर अपने गांव में व आस-पास के अन्य गांवों में भी यह उदन्त सुनाया और चण्डकौशिक सर्प अब अपना विष छोड़कर शान्त हो गया है, यह प्रसिद्ध कर दिया। जनता में इससे हर्ष को लहर दौड़ गई। नागदेव शान्त हो गया, इस बात से प्रेरित होकर सैंकड़ों व्यक्ति उसकी पूजा व अर्चा के लिए वहां आने लगे। वे दुग्ध-शर्करा आदि चढ़ाने लगे। उपहृत पदार्थों की गंध से होकर वहां बहुत सारी चींटियाँ जमा हो गई और सर्प के शरीर को चूंटने लगीं। चण्डकौशिक को इससे अपार वेदना हुई। उस समय भी उसने महावीर का तितिक्षा-आदर्श रखा। वह तिलमिलाया नहीं और न मन में भी क्रुद्ध हुआ। उसने न चींटियों को कोई आघात पहुंचाया और न स्वयं भी वहाँ से हटकर दूसरी जगह गया। वेदना को समभाव से सहन करता हुआ, शरीर का त्याग कर देव-योनि में उत्पन्न हुआ।' चण्डनाग-विजय बुद्ध उरुवेल काश्यप जटिल के आश्रम में पहुंचे और उससे कहा-“यदि तुझे असुविधा न हो, तो मैं तेरी अग्निशाला में वास करना चाहता हूँ।" उरुवेल काश्यप ने निवेदन किया--"महाश्रमण ! तुम्हारे निवास से मुझे तो कोई असुविधा नहीं है, किन्तु, यहाँ एक अत्यन्त चण्ड व दिव्य शक्तिधर आशीविष नागराज रहता है । कहीं वह तुम्हारे लिए हानिकारक न हो।" बुद्ध ने अपने प्रस्ताव को फिर भी दो-तीन बार दुहराया और कहा-"काश्यप ! वह नाग मुझे हानि नहीं पहुंचा सकेगा । तू अग्निशाला की स्वीकृति दे दे।" १. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रम्, पर्व १०, सर्ग ३; आवश्यक नियुक्ति, मलयगिरि वृत्ति, गा० ४६६-६७, पत्र २७३-७४ । ___Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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