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परिषह और तितिक्षा
महावीर की चर्या में घटनात्मक परिषहों की कथा बहुत ही रोमाञ्चक है। वे परिषह बुद्ध की चर्या में नहीं देखे जाते। कुछ एक परिषह-प्रसंग ऐसे हैं, जो न्यूनाधिक रूपान्तर से दोनों की जीवन-चर्या में मिलते हैं।
महावीर का 'चण्डकौशिक-उद्बोधन' और बुद्ध का 'चण्डनाग-विजय;' ये प्रसंग हार्द की दृष्टि से एक दूसरे के बहुत निकट हैं ।
चण्डकौशिक-उद्बोधन
___ महावीर प्रामानुग्राम विहरण करते हुए एक दिन श्वेताम्बिका नगरी की ओर जा रहे थे। जिस मार्ग से वे प्रस्थान कर रहे थे, कुछ व्यक्तियों ने उस ओर जाते हुए उन्हें यह कहकर रोका कि इसी मार्ग पर भयंकर आशीविष चण्डकौशिक सपं रहता है । वह पलक मारते ही व्यक्ति को धराशायी कर देता है। सैकड़ों व्यक्ति उसके शिकार हो चुके हैं । अब यह मार्ग भी निषिद्ध मार्ग के नाम से सर्वत्र प्रसिद्धि पा चुका है। अतः हे श्रमण ! इस पथ से न जाओ। इसी में तुम्हारा भला है।
महावीर जिस दिन से श्रमण बने थे, व्युत्सृष्टकाय होकर तपः-प्रधान साधना कर रहे थे। सम्मुखीन उपसर्ग से भीत होकर पथ न बदलने की उनकी अपनी प्रतिज्ञा थी; अतः उन्होंने उन व्यक्तियों का कथन सुना अवश्य, पर, उससे प्रभावित होकर अपना मार्ग न बदला। वे उसी राह से और उसी संयमनिष्ठ गति से चलते रहे । जब कुछ दूर गये, उसी चण्डकौशिक सर्प की बांबी आ गई। सर्प भी बाहर ही बैठा था। उसने भी कुछ दूरी पर महावीर को अपनी ओर आते देखा । उसे भी बड़ा आश्चर्य हआ। बहत दिनों बाद उस मार्ग से किसी मनुष्य का आगमन हआ था। सपं ने सूर्य की ओर देखा तथा अपना भयंकर महावीर पर छोड़ा। महावीर ध्यानस्थ खड़े हो गए। उसके फफकार का उन पर कोई प्रभाव नहीं हआ। वे अविचल ध्यान में लीन खडे रहे। अपने अचक विष का भी जब उन पर कोई प्रभाव न हआ, तो सर्प और अधिक क्रोधारुण हो गया। वह वहां से चला और निकट आकर उसने महावीर के पैर के अंगुठे को डसा। फिर भी उसके जहर का उनके शरीर पर कोई प्रभाव न हुआ। वह उनके शरीर पर चढ़ा। उसने उनके कन्धों को डसा। जहर का तब भी
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