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________________ ५६० आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ ६. इन्द्रिय-विषय-इष्ट शब्द-रूप आदि इन्द्रियज-विषयों को दूर से ग्रहण करने की शक्ति । ७. अवधि-अवधि व विभंग-ज्ञान से जानने की शक्ति । चार बातें इस प्रकार हैं, जो क्रमशः हीन होती जाती हैं : १. गति-गमन करने की शक्ति एवं प्रवृत्ति। उत्तरोत्तर महानुभावता, उदासीनता ___ और गम्भीरता अधिक है। २. शरीर-अवगाहना-शरीर की ऊँचाई। ३. परिवार-विमान तथा सामानिक आदि देव-देवियों का परिवार । ४. अभिमान--स्थान, परिवार, शक्ति, विषय, विभूति एवं आयु का अहंकार। रेवाधिदेव-देखें, अरिहन्त । देशाव्रती-व्रतों का सर्वरूपेण नहीं, अपितु किसी अंश में पालन करने वाला। यलिंगी-केवल बाह्य वेष-भूषा। द्वादश प्रतिमा-देखें, भिक्षु प्रतिमा । वाशांगी-तीर्थङ्करों की वाणी का गणधरों द्वारा ग्रन्य रूप में होने वाला संकलन अंग कहलाता है। वे संख्या में बारह होते हैं, अतः उस सम्पूर्ण संकलन को द्वादशांगी कहा जाता है । पुरुष के शरीर में जिस प्रकार मुख्य रूप से दो पैर, दो जंघाएँ, दो उरु, दो गात्राई (पाव), दो बाहु, एक गर्दन और एक मस्तक होता है। उसी प्रकार श्रुत-रूप पुरुष के भी बारह अंग हैं। उनके नाम हैं : १. आभारुग, २. सुयगडांग ३. ठाणांग, ४. समवायांग, ५. विवाहपण्णत्ती (भगवती), ६. षायाधम्म कहांग ७. उवासगदसांग, १. अन्तगडदसांग ६. अणुत्तरो ववाइय, १०. पण्हावागरण, ११. विपाक और १२. दिद्विवाय। हितीव सप्त अहोरात्र प्रतिमा-साधु द्वारा सात दिन तक चौविहार एकान्तर उपवास, उत्कुटक, लगण्डशायी (केवल सिर और एड़ियों का पृथ्वी पर स्पर्श हो, इस प्रकार पीठ के बल लेटना) या दण्डायत (सीधे दण्डे की तरह लेटना) होकर ग्रामादि से बाहर कोयोत्सर्ग करना। द्विमासिकी से सप्त मासिकी प्रतिमा-साधु द्वारा दो मास, तीन मास, चार मास, पाँच मास, छह मास, सात मास तक आहार-पानी की क्रमशः दो, तीन, चार, पाँच, छह, सात दत्ति ग्रहण करने की प्रतिज्ञा । नन्दीश्वर द्वीप--जम्बूद्वीप से आठवाँ द्वीप । नसोत्युणं-अरिहन्त और सिद्ध की स्तुति। नरक-अधोलोक के वे स्थान, जहाँ घोर पापाचरण करने वाले जीव अपने पापों का फल भोगने के लिए उत्पन्न होते हैं, नरक सात हैं १. रत्न प्रभा-कृष्णवर्ण भयंकर रत्नों से पूर्ण, २. शर्करा प्रभा-भाले, बरछी आदि से भी अधिक तीक्ष्ण कंकरों से परिपूर्ण । ३. बालुका प्रभा-मड़भूजे की भाड़ की उष्ण बालू से भी अधिक उष्ण बालू। Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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