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इतिहास और परम्परा] परिशिष्ट-२ : जैन पारिभाषिक शब्द-कोश
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सौधर्म और ईशान मेरुपर्वत से डेढ़ रज्जू ऊपर क्रमश: दक्षिण और उत्तर में समानान्तर हैं। सनत्कुमार और माहेन्द्र भी सौधर्म और ईशान के ऊर्ध्व भाग में समानान्तर हैं । ब्रह्म, लातंक, शुक्र और सहस्रार उनके ऊपर क्रमशः एक-एक हैं । आनत और प्राणत दोनों समानान्तर हैं । आरण व अच्युत भी उनके ऊपर समानान्तर हैं। कल्पोपपन्न देवों का आयु-परिमाण इस प्रकार है : १. जघन्य एक पल्योपम व उत्कृष्ट दो सागरोपम, २. जघन्य साधिक एक पल्योपम व उत्कृष्ट साधिक दो सागर, ३. जघन्य दो सागर व उत्कृष्ट सात सागर, ४. जघन्य साधिक दो सागर व उत्कृष्ट साधिक सात सागर, ५. जघन्य सात सागर व उत्कृष्ट दस सागर, ६. जघन्य दस सागर व उत्कृष्ट चौदह सागर, ७. जघन्य चौदह सागर व उत्कृष्ट सतरह सागर, ८. जघन्य सतरह सागर व उत्कृष्ट अठारह सागर, ६. जघन्य अठारह सागर व उत्कृष्ट उन्नीस सागर, १०. जघन्य उन्नीस सागर व उत्कृष्ट बीस सागर, ११. जघन्य बीस सागर व उत्कृष्ट इक्कीस सागर, १२. जघन्य इक्कीस सागर व उत्कृष्ट बाईस सागर ।
कल्पातीत का तात्पर्य है-जहाँ छोटे-बड़े का भेद-भाव नहीं है। सभी अहमिन्द्र हैं। वे दो भागों में विभक्त हैं : १. वेयक और २. अनुत्तर । आगमों के अनुसार लोक का पैर फैलाये स्थित मनुष्य की तरह है। वेयक का स्थान ग्रीवा-गर्दन के पास है; अतः उन्हें नैवेयक कहा जाता है । वे नौ हैं : १. भद्र, २. सुभद्र, ३. सुजात, ४. सौमनस, ५. प्रियदर्शन, ६. सुदर्शन, ७. अमोघ, ८. सुप्रतिबुद्ध और ६. यशोधर । इनके तीन त्रिक हैं और प्रत्येक त्रिक में तीन स्वर्ग हैं। २. अनुत्तर-स्वर्ग के सब विमानों में ये श्रष्ठ हैं; अतः इन्हें अनुत्तर कहा जाता है। इनकी संख्या पांच है : १. विजय, २. वैजयन्त, ३. जयन्त, ४. अपराजित और ५. सर्वार्थसिद्ध । चार चारों दिशाओं में हैं और सर्वार्थसिद्ध उन सब के बीच में है।
१२ स्वर्ग कल्पोपपन्न के और १४ स्वर्ग कल्पातीत के हैं। इनकी कुल संख्या २६ है । , सब में ही उत्तरोत्तर सात बातों की वृद्धि और चार बातों की हीनता है। सात बातें इस प्रकार हैं :
१. स्थिति–आयुष्य। २. प्रभाव-रुष्ट हो कर दुःख देना, अनुग्रहशील हो कर सुख पहुँचाना अणिमामहिमा आदि सिद्धियाँ और बलपूर्वक दूसरों से काम करवाना-चारों ही प्रकार का यह प्रभाव उत्तरोत्तर अधिक है, किन्तु कषाय मन्दता के कारण वे उसका उपयोग नहीं करते हैं। ३. सुख-इन्द्रियों द्वारा इष्ट विषयों का अनुभव रूप सुख । ४. द्युति-शरीर और वस्त्राभूषणों की कान्ति । ५. लेश्या विशुद्धि-परिणामों की पवित्रता।
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