________________
इतिहास और परम्परा ]
त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत
३८३
करने वाला होता है । यह नया कर्म नहीं करता और प्राचीन कर्म के फल को भोग कर समाप्त कर देता है । यह सांदृष्टिक निर्जरा है और देश-काल की सीमाओं से रहित है । इसके लिए कह सकते हैं, आओ, स्वयं परीक्षा करो। यह स्वयं निर्वाण की ओर ले जाने वाली है । प्रत्येक विज्ञ पुरुष इसका साक्षात् कर सकता है ।
"अभय ! इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु काम-भोगों से दूर हो, सुख व दुःख के परित्याग से सौमनस्य व दौर्मनस्य के पूर्व ही अस्त हो जाने से, सुख-दुःख-रहित चतुर्थ ध्यान को प्राप्त कर विहार करता है। वह नया कर्म नहीं करता और प्राचीन कर्म के फल को भोग कर समाप्त कर देता है। यह सांदृष्टि निर्जरा है और देश-काल की सीमाओं से रहित है ।......प्रत्येक विज्ञ पुरुष इसका साक्षात् कर सकता है ।
"अभय ! इस प्रकार वह शील-सम्पन्न भिक्षु शील-सम्पन्न, समाधि सम्पन्न तथा प्रज्ञा सम्पन्न होकर आस्रवों का क्षय कर अनास्रव चित्त-विमुक्ति व प्रज्ञा-विमुक्ति को इसी शरीर में जान कर, साक्षात्कार कर और प्राप्त कर विहार करता है। वह नवीन कर्म नहीं करता और प्राचीन कर्म के फल को भोग कर समाप्त कर देता है । यह सांदृष्टिक निर्जरा है और देश काल की सीमाओं से रहित है । प्रत्येक विज्ञ पुरुष इसका साक्षात् कर
सकता है।
"अभय ! उन भगवान्, ज्ञानी, दर्शी, अर्हत्, सम्यक् सम्बुद्ध के द्वारा शोक तथा रोनेपीटने के अतिक्रमण के लिए, दुःख - दौर्मनस्य के नाश के लिए, ज्ञान की प्राप्ति के लिए तथा निर्वाण के साक्षात्कार के लिए ये तीन निर्जरा-विशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार कही गई हैं ।"
पण्डितकुमार लिच्छवी ने अभय लिच्छवी से पूछा - "सौम्य ! अभय ! आयुष्मान् आनन्द के सुभाषित का सुभाषित के रूप में अनुमोदन क्यों नहीं करता ?"
"सौम्य ! मैं इससे परे नहीं हूँ । जो व्यक्ति आयुष्मान् आनन्द के सुभाषित का अनुमोदन नहीं करेगा, उसका सिर भी गिर सकता है।"
- अंगुत्तर निकाय, तिकनिपात ७४, (हिन्दी अनुवाद) पृ० २२७-२८ के आधार से ।
समीक्षा
अभय लिच्छवी का उल्लेख प्रस्तुत प्रकरण के अतिरिक्त साल्ह सुत्त' में भी आता है । वहाँ भी वह साल्ह लिच्छवी के साथ बुद्ध से चर्चा करने के लिए प्रस्तुत होता है । यहाँ यह स्वयं प्रश्न करता है, वहाँ उसका सहवर्ती साल्ह लिच्छवी । अंगुत्तर निकाय के अंग्रेजी अनुवाद में डॉ० वुडवार्ड ने अभय लिच्छवी और अभय राजकुमार को एक ही मान लिया है । " पर वस्तुतः ये दोनों ही व्यक्ति पृथक्-पृथक् हैं। अभय राजकुमार राजगृह का निवासी तथा राजा बिम्बिसार का पुत्र होता है और अभय लिच्छवी वैशाली का कोई क्षत्रिय कुमार है । प्रस्तुत प्रकरण में तप-विषयक जो चर्चा की है, वह जैन- धारणा के सर्वथा अनुकूल ही है । 'निर्जरा' शब्द का उपयोग बहुत यथार्थ है ।
१. अंगुत्तर निकाय, चतुक्कनिपात, महावग्ग, साल्ह सुत्त, ४ २०-१६६ ।
२. The Book of Gradual Sayings vol. I, p. 200.
Jain Education International 2010_05
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org