SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 436
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८२ आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [खण्ड : १ बन्धन मुक्त हो गया है व मान को अच्छी तरह जान कर दुःख का अन्त कर दिया है ।' तब मुझे आपके धर्म को जानने की विचिकित्सा व उत्सुकता हुई।" गौतम बुद्ध ने कहा - " वत्स ! विचिकित्सा स्वाभाविक ही थी । जो वर्तमान में उपादान से युक्त है, मैं उसी की उत्पत्ति के बारे में बतलाता हूँ । जो उपादान से मुक्त हो गया है, उसकी उत्पत्ति के विषय में नहीं । उपादान के सद्भाव में ही जैसे अग्नि जलती है, अभाव में नहीं, वैसे ही मैं उपादान से युक्त की उत्पत्ति के बारे में ही बतलाता हूँ, उपादान से मुक्त के विषय में नहीं ।" 茹 " गौतम ! जिस समय अग्नि की लपट उड़ कर दूर चली जाती है, उस समय उसका उपादान आप क्या बतलाते हैं ?" "वत्स ! हवा ही उसका उपादान है ।" "गौतम ! इस शरीर त्याग और दूसरे शरीर ग्रहण के बीच सत्त्व का उपादान क्या होता है ?" वत्स ! तृष्णा ही उसका उपादान है ।" - संयुक्त निकाय, कुतूहलशाला सुत्त, ४२-६ के आधार से । समीक्षा जैन धारणा के अनुसार मृत की गति का जान लेना बहुत साधारण बात है। महावीर तो कैवल्य-सम्पन्न थे । मृत की गति तो अवधिज्ञान से भी जानी जा सकती है । १०. अमय लिच्छवी एक समय आयुष्मान् आनन्द वंशाली के महावन में कूटागारशाला में विहार करते थे। उस समय अभय लिच्छवी व पण्डितकुमार लिच्छवी ने आयुष्मान् आनन्द से कहा"भन्ते ! निगन्ठ नातपुत्त का कहना है कि वे सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं और उन्हें असीम ज्ञानदर्शन प्राप्त है। उनका कहना है— मुझे चलते, खड़े रहते, सोते, जागते, सतत ज्ञान-दर्शन उपस्थित रहता है। उनका कहना है-तपस्या से प्राचीन कर्मों का नाश होता है और कर्मों के अकरण से नवीन कर्मों का घात होता है । इस प्रकार कर्म-क्षय से दुःख-क्षय, दुःखक्षय से वेदना क्षय, वेदना-क्षय से समस्त दुःखों की निर्जरा होगी। इस प्रकार सांदृष्टिक निर्जरा - विशुद्धि से दुःख का अतिक्रमण होता है । भन्ते ! भगवान् इस विषय में क्या कहते हैं ?" आयुष्मान् आनन्द ने उत्तर दिया- "उन भगवान्, ज्ञानी, दर्शी, अर्हत्, सम्यक्सम्बद्ध के द्वारा शोक व रोने-पीटने के अतिक्रमण के लिए, दुःख दौर्मनस्य के नाश के लिए, ज्ञान की प्राप्ति के लिए तथा निर्वाण के साक्षात्कार के लिए तीन निर्जरा विशुद्धियाँ सम्यक् प्रकार कही गई हैं । " "भन्ते ! वे तीन कौन सी हैं ?" "अभय ! भिक्षु सदाचारी, प्रातिमोक्ष के नियमों का पालन करने वाला, आचारगोचर से युक्त, अणु-मात्र दोष से भी भीत होने वाला और शिक्षापदों के नियमों का पालन Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy