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________________ ३८४ ११. लोक सान्त-अनन्त दो लोकायतिक ब्राह्मण भगवान् के पास आये । आकर शास्ता का अभिवन्दन किया और एक ओर बैठ गये । एक ओर बैठे उन्होंने भगवान् से कहा - " हे गौतम ! पूरण कस्सप सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निखिल ज्ञान दर्शन का अधिकारी है। वह मानता है कि मुझे चलते, खड़े रहते, सोते जागते भी निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है । वह ऐसा कहता है— मैं अपने अनन्त ज्ञान से अनन्त लोक को जानता, देखता व विहरता हूँ ।' हे गौतम ! यह निगंठ नातपुत्त भी सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, निखिल ज्ञान-दर्शन का अधिकारी है । वह मानता है - 'मुझे चलते, खड़े रहते, सोते, जागते भी निरन्तर ज्ञान दर्शन उपस्थित रहता है।' वह ऐसा कहता है - " मैं अपने अनन्त ज्ञान से अनन्त लोक को जानता, देखता, विहरता हूँ ।' इन परस्पर विरोधी ज्ञानवादों में हे गौतम! कौन सा सत्य है और कौन सा असत्य ?" बोले आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन "रहने दो, ब्राह्मणो ! 'इन परस्पर विरोधी ज्ञानवादों में कौन सा सत्य है और कौन सा असत्य' इस बात को । ब्राह्मणो ! मैं तुम्हें धर्मोपदेश करता हूँ, उसे सुनो, सम्यक् प्रकार से ध्यान दो ।" "अच्छा, भगवन् !" इस प्रकार कह ब्राह्मणों ने उसे स्वीकार किया और भगवन् - सुत्तपिटके, अंगुत्तर निकाय पालि, नवक-निपातो, महावग्गो, लोकायतिक सुत्तं, ६-४-७ के आधार से । [...] समीक्षा उक्त प्रकरण में लोकायतिक पूरण कस्सप और निगंठ नातपुत्त के लोक- सिद्धान्त की चर्चा करते हैं । उस चर्चा में सान्तता और अनन्तता का मतभेद भी व्यक्त होता है ; पर उक्त प्रकरण में एक मौलिक असंगति यह है कि लोक-सम्बन्धी धारणा में दोनों का मतभेद भी बताया जाता है और दोनों की धारणा समान रूप से अनन्त भी बताई जाती है। दोनों की धारणाओं में लोक अनन्त है, तो मतभेद कैसा ? इसी प्रकरण के अंग्रेजी अनुवाद में ई० एम० हेर पूरण कस्सप का लोक सान्त और निगंठ नातपुत्त का लोक अनन्त बतलाते हैं । ' अनुवादक ने एक पाठान्तर के आधार पर ऐसा किया है। पर, यह भी सही नहीं लगता । एक दूसरा पाठान्तर जो अनुवादक ने टिप्पण में दिया है, उसमें पूरण कस्सप के साथ अनन्तं और निगण्ठ नातपुत्त के साथ अन्तवन्तं पाठ है ।" वह सही लगता है; क्योंकि महावीर की लोक-सम्बन्धी धारणा के वह नितान्त अनुकूल बैठता है । महावीर ने लोक को सान्त और अलोक को अनन्त माना है । महावीर ने द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से लोक की पृथक्-पृथक् व्याख्या की है । अर्थात् - द्रव्य की अपेक्षा लोक - सान्त १. The Book of Gradual Sayings, vol. IV, pp. 287-288. R. Ibid., p, 288 fn. ३. भगवती सूत्र, ११-१०-४२१ । Jain Education International 2010_05 [ खण्ड : १ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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