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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ "भन्ते ! इससे मैं और भी प्रसन्न मन, सन्तुष्ट और अभिरत हुआ हूँ। मैंने सुना था, श्रमण गौतम कहता है- 'मुझे ही दान देना चाहिए।' किन्तु भगवान् तो मुझे निगंठों को भी दान देने के लिए कहते हैं । भन्ते ! हम भी उपयुक्त समझते हैं। मैं तीसरी बार भगवान् की शरण ग्रहण करता हूँ।" गौतम बुद्ध ने सिंह सेनापति को आनुपूर्वी कथा कहते हुए दान-शील व स्वर्ग-कथा, कामभोगों के दोष, अपकार व क्लेश, और निष्कामता का माहात्म्य प्रकाशित किया। बुद्ध ने जब सिंह सेनापति को अरोग-चित्त, मृदु-चित्त, अनाच्छादित-चित्त, उदग्र-चित्त, प्रसन्न-चिर्स जाना, तो बुद्धों की स्वयं उठाने वाली धर्म-देशना से उसे प्रकाशित किया। शुद्ध वस्त्र जिस प्रकार सहजता से रंग पकड़ लेता है, उसी प्रकार सिंह सेनापति को उसी आसन पर विमल, विरज धर्म-चक्षु उत्पन्न हुआ। सिंह सेनापति दृष्ट-धर्म, प्राप्त-धर्म, विदित-धर्म, पर्यवगाढ़-धर्म, संदेह-रहित, वादविवाद-रहित, विशारदता-प्राप्त, शास्ता के शासन में स्वतंत्र हो भगवान् से बोला"भन्ते ! भिक्षु-संघ के साथ मेरा कल का भोजन स्वीकार करें।" गौतम बुद्ध ने मौन के साथ उस निमंत्रण को स्वीकार किया । सिंह सेनापति आसन से उठा और अभिवादन कर व प्रदक्षिणा कर चला गया। सिंह सेनापति ने अपने एक अनुचर को निर्देश दिया-'यदि कहीं तैयार मांस मिलता हो तो ले आ।" रात बीतने पर वह स्वयं उठा । उत्तम भोजन तैयार करवाये और भगवान् को काल की सूचना दी। पूर्वाह्न के समय बुद्ध चीवर पहन, पात्र-चीवर ले सिंह सेनापति के घर आये। भिक्षु-संघ के साथ बिछे आसन पर बैठे। उस समय बहुत सारे निगंठ (जैन-साधु ) वैशाली के राजमार्गों व चौराहों पर ऊर्ध्व बाहु होकर चिल्ला रहे थे- सिंह सेनापति ने आज एक बहुत बड़े पशु को मार कर श्रमण गौतम के लिए भोजन बनाया है । श्रमण गौतम जान-बूझकर अपने ही उद्देश्य से बनाये गये उस मांस को खाता है।" शहर में इस उदन्त को सुनकर एक पुरुष सिंह सेनापति के पास गया। उसके कान में सारी बात कही। सिंह सेनापति ने उपेक्षा दिखाते हुए कहा-"जाने दो आर्य ! ये आयुष्यमान् (निगंठ) चिरकाल से बुद्ध, धर्म व संघ की निन्दा चाहने वाले हैं। ये भगवान की असत, तुच्छ, मिथ्या निन्दा करते हुए भी नहीं शरमाते। हम तो अपने लिए भी जान-बूझकर किसी का प्राण-वियोजन नहीं करेंगे।" सिंह सेनापति ने बुद्ध-सहित भिक्षु-संघ को अपने हाथों उत्तम भोजन परोसा । उन्हें सन्तर्पित कर परिपूर्ण किया। पात्र से हाथ खींच लेने पर सिंह सेनापति एक ओर बैठ गया। बुद्ध ने उसे धार्मिक कथा द्वारा संदर्शित किया और आसन से उठकर चल दिये। भिक्षओं को सम्बोधित करते हुए बुद्ध ने कहा- "जान-बूझकर अपने उद्देश्य से बने मांस को नहीं खाना चाहिए। जो खाये, उसे दुक्कट का दोष। भिक्षुओ, अदृष्ट, अश्रुत व अपरिशंकित; इन तीन कोटि से परिशुद्ध मांस खाने की मैं अनुज्ञा देता है।" विनयपिटक महावग्ग, भैषज्य खन्धक, ६-४-८ के आधार से ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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