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इतिहास और परम्परा]
त्रिपिटकों में निगण्ठ व निगण्ठ नातपुत्त
३५९
समीक्षा
सिंह सेनापति और तथाप्रकार के उदन्त का आगम-साहित्य में कहीं आभास नहीं मिलता। महावीर के किसी अनुयायी का बुद्ध की शरण में आ जाना और बुद्ध के किसी अनुयायी का महावीर की शरण में आ जाना, कोई अद्भुत व असम्भव बात नहीं है, पर, जनपरम्परा में इस घटना का यत्किचित् भी समुल्लेख होता तो वह पूर्णतया ही ऐतिहासिक रूप ले लेती। असंभव की कोटि में मानने का तो अब भी कोई आधार नहीं है।
गजराती साहित्यकार श्री जय भिक्खू ने अपने ऐतिहासिक उपन्यास नरकेसरी में सिंह सेनापति को महावीर के परम अनुयायी चेटक होने की सम्भावना व्यक्त की है, पर, वह यथार्थ नहीं है।'
सिंह सेनापति का विस्तृत वर्णन बौद्ध साहित्य में भी नहीं मिलता। इस घटना-प्रसंग के अतिरिक्त उसका नामोल्लेख अंगुत्तर निकाय में बुद्ध से की गई दान-सम्बन्धी चर्चा में आता है या थेरीगाथा में सिंहा भिक्खुणी के पितृव्य के रूप में आता है।
उक्त प्रकरण में महावीर को क्रियावादी व्यक्त किया गया है। क्रियावाद शब्द उस समय में बहुत व्यापक अर्थ का वाची रहा है । क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद और विनयवाद के ३६३ भेद जैन परम्परा में माने गए हैं। पर, क्रियावाद और अक्रियावाद के इन भेदों में महावीर का अभिमत नहीं है। वे सब पर-मत की चर्चा हैं। महावीर को जो क्रियावादी कहा गया है, अपेक्षा-भेद से यह भी यथार्थ माना जा सकता है। इसका आधार सूयगडांग से मिलता है। वहाँ बताया गया है कि जो आत्मा को जानता है, जो लोक को जानता है, जो गति और अन्तर्गति को जानता है, जो नित्य-अनित्य, जन्म-मरण और प्राणियों के गति-क्रम को जानता है, जो सत्त्वों की वेदना को जानता है, जो आश्रव और संवर को जानता है. जो दुःख को तथा निर्जरा को जानता है, वही क्रियावाद को यथार्थ रूप से कह सकता है। जो इन तत्त्वों को जानता है अर्थात् स्वीकार करता है, वही क्रियावादी है। इसी प्रकार आयारंग
१. विशेष चर्चा देखें, 'अनुयायी राजा' प्रकरण के अन्तर्गत 'चेटक' । २. The Book of Gradual Sayings. Vol III, p. 38; Vol. IV, p. 69. ३. थेरीगाथा ७७-८१। ४. सूयगडांग, श्रु० १, गा० १, नियुक्ति गा० ११६-१२१ ।
अत्ताण जो जाणति जो य लोग, गइंच जो जाणइ णागई च । जो सासयं जाण असासयं च, जातिं च मरणं च जणोववायं ।। अहोऽवि सत्ताण विउट्ठणं च, जो आसवं जाणति संवरं च । दुक्खं च जो जाणति निज्जरं च, सो भासिउमरिहइ किरियवादं ।
सूयगडांग, श्रु० १, अ० १२, गा० २०.२१ । ६. 'यश्चैतान् पदार्थान् ‘जानाति' अभ्युपगच्छति स परमार्थतः क्रियावादं जानाति ।'
सूयगडांग वृत्ति, श्रु० १, अ० १२, गा० २१ ।
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