SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 414
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड : १ में आत्मवादी को क्रियावादी कहा है।' वस्तुतः तो भगवान महावीर अनेकान्तवादी थे । उनका दर्शन तो आहेसु विज्जाचरणं पमोक्खं की उक्ति में व्यक्त होता है, जिसका हार्द है, ज्ञान और क्रिया की युगपत् स्थिति में ही मोक्ष की सम्भावना है। - उक्त प्रसंग में बुद्ध ने भी तो मनो-दुश्चरित, मन:-सुचरित आदि के अपेक्षा-भेद से स्वयं को क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही बताने का प्रयत्न किया है। बौद्ध भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए मांसाहार का स्पष्ट विधान इसी घटना-प्रसगै से बना है। अदृष्ट, अश्रुत व अपरिशंकित मांस को बुद्ध ने ग्राह्य कहा है । निगंठों ने यहाँ उद्दिष्ट मांस का विरोध किया है । आर्द्रककुमार प्रकरण में भी उद्दिष्ट मांस को गहस्पिद कहा है। 2. गृहपति उपालि एक समय भगवान् बुद्ध नालन्दा में प्रावारिक के आम्र-वन में विहार करते थे। उस समय निगण्ठ नातपुत्त भी निगंठों (जन-साघुओं) की महती परिषद् के साथ नालन्दा में विहार कर रहे थे। एक दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ नालन्दा में भिक्षाचार कर, पिण्डपात समाप्त कर प्रावारिक के आम्र-वन में बुद्ध के पास आया। उन्हें कुशल-प्रश्न पूछा और एक ओर खड़ा हो गया। दीर्घ तपस्वी निर्ग्रन्थ से बुद्ध ने कहा-"तपस्विन् ! आसन तैयार है, यदि इच्छा हो तो बैठ जाओ।" दीर्घ तपस्वी एक नीचा आसन लेकर एक ओर बैठ गया। बद्ध ने उससे कहा-"पाप कर्म करने के लिए, पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निर्ग्रन्थ नातपुत्त कितने कर्मों का विधान करते हैं?" "आवस गौतम ! 'कर्म' का विधान करना निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र की परम्परा के विरुद्ध है। वे तो 'दण्ड' का ही विधान करते हैं।" __ "तपस्विन् ! तो पाप-कर्म की प्रवृत्ति के लिए निगंठ नातपुत्त कितने 'दण्ड' का विधान करते हैं ?" “गौतम ! वे काय-दण्ड, वचन-दण्ड और मन-दण्ड; इन तीन दण्डों का विधान करते हैं।" "तपस्विन् ! क्या वे भिन्न-भिन्न हैं ?" "हाँ, गौतम ! वे भिन्न-भिन्न हैं।" १. से आयावादी लोयावादी किरियावादी कम्मवादी । -आयारंग ॥११० २. सूयगडांग श्रु० १, अ० १२, गा० ११ । ३. थूल उरब्भं इह मारियाणं, उदिट्ठभत्तं ए पगप्पएत्ता। सूयगडांग, श्रु० २, अ० ६, गा० ३७ । ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy