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इतिहास और परम्परा
आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता
१. जो भिक्षुणी प्रदीप-रहित रात्रि के अंधकार में अकेले पुरुष के साथ अकेली खड़ी
रहे या बातचीत करे ; उसे 'पाचित्तिय' है। २. जो भिक्षुणी गुह्य-स्थान के रोम बनवाये ; उसे 'पाचित्तिय' है। ३. जो भिक्षुणी अप्राकृतिक कर्म करे, उसे 'पाचित्तिय' है। ४. जो भिक्षुणी यौन-शुद्धि में दो अंगुलियों के दो पोर से अधिक काम में ले, तो उसे __'पाचित्तिय' है।
प्रश्न हो सकता है, शास्त्र-निर्माताओं ने यह असामाजिक-सी आचार-संहिता इस स्पष्ट भाव-भाषा में क्यों लिख दी ? यह निर्विवाद है कि लिखने वाले संकोच-मुक्त थे। इस विषय में संकोच-मुक्त दो ही प्रकार के व्यक्ति होते हैं-जो अधम होते हैं या जो परम उत्तम होते हैं, जिनकी वृत्तियाँ इस विषय के आकर्षण-विकर्षण से रहित हो चुकी हैं । शास्त्र-निर्माता दूसरी कोटि के लोगों में से हैं। संकोच भी कभी-कभी अपूर्णता का द्योतक होता है । समवृत्ति वाले लोगों में मुक्तता स्वाभाविक होती है।
पौराणिक आख्यान है-तीन ऋषि एक बार किसी प्रयोजन से देव-सभा में पहुंचे हुए थे । वे इन्द्र के दाहिनी ओर ससम्मान बैठे हुए थे और सभा का सारा दृश्य उनके सामने था। देखते-देखते अप्सराओं का नृत्य आरम्भ हुआ। अप्सराओं की रूप-राशि को देखते ही कनिष्ठ ऋषि ने अपनी आंखें मूंद लीं और ध्यानस्थ हो गये। नृत्य करते-करते अप्सरायें मद विह्वल हो गईं और उनके देव-दूष्य इधर-उधर बिखर गए। इस अशिष्टता को देख मध्यम ऋषि आँखें मूंद कर ध्यानस्थ हो गए। अप्सराओं का नृत्य चालू था। देखते-देखते वे सर्वथा वस्त्र-विहीन होकर नाचने लगीं । ज्येष्ठ ऋषि ज्यों-के-त्यों बैठे रहे। इन्द्र ने पूछा- "इस नत्य को देखने में आपको तनिक भी संकोच नहीं हुआ, क्या कारण है ?" ऋषि ने कहा"मुझे तो इस नृत्य के उतार-चढ़ाव में कुछ अन्तर लगा ही नहीं। मैं तो आदि क्षण से लेकर अब तक अपनी सम स्थिति में हूँ।" इन्द्र ने कहा- "इन दो ऋषियों ने क्रमशः आँखें क्यों मंद लीं ?" ज्येष्ठ ऋषि ने कहा-"वे अभी साधना की सीढ़ियों पर हैं। मंजिल तक पहुंचने के बाद इनका भी संकोच मिट जाएगा।"
ठीक यही स्थिति प्रस्तुत प्रकरण के सम्बन्ध में सोची जा सकती है। सर्व साधारण को लगता है, ज्ञानियों ने इस विषय को इतना खोल कर क्यों लिखा, परन्तु, ज्ञानियों के अपने मन में संकोच करने का कोई कारण भी तो शेष नहीं था तथा संघ-व्यवस्था के लिए यह आवश्यकता का प्रश्न भी था। देश के अधिकांश लोग भले होते हैं, पर, कुछ एक चोरसुटेरे और व्यभिचारी आदि असामाजिक तत्त्व भी रहते हैं। राजकीय आचार-संहिता में यही तो मिलेगा न-अमुक प्रचार की चोरी करने वाले को यह दण्ड, अमुक प्रकार का व्यभिचार करने वाले को यह दण्ड । साधुओं का भी एक समाज होता है। सहस्रों के समाज में अनुपात से असाधुता के उदाहरण भी घटित होते हैं। उस चरित्रशील साधु-समाज की
१. विनय पिटक, भिक्खुणी पातिमोक्ख, पाचित्तिय ११ । २. वही, २। ३. वही, ३। ४. वही, ५।
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