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४६४ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड :१ संघीय आचार-संहिता में उक्त प्रकार के नियम अनावश्यक और अस्वाभाविक नहीं माने जा सकते।
प्रायश्चित्त-विधि
प्रायश्चित्त और प्रायश्चित्त करने के प्रकार, दोनों परम्पराओं में बहुत ही मनोवैज्ञानिक हैं। जैन परम्परा में प्रायश्चित्त के मुख्यतया दस भेद हैं :
१. आलोयणा (आलोचना)-निवेदना तल्लक्षणं शुद्धि यवहत्यतिचार जातं तदा
लोचना-लगे दोष का गुरु के पास यथावत् निवेदन करना। इससे मानसिक
मलिनता का परिष्कार माना गया है। २. पडिक्कमण (प्रतिक्रमण)-मिथ्या दुष्कृतं । यह प्रायश्चित्त साधक स्वयं कर
सकता है। इसका अभिप्राय है-मेरा पाप मिथ्या हो। ३. तदुभयं-आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों मिलकर 'तदुभयं' प्रायश्चित्त है। ४. विवेग (विवेक)- अशुद्धभक्ता दित्यागः । आधाकर्म आदि अशुद्ध आहार का
त्याग । ५. विउसग्ग (व्युत्सर्ग)-कायोत्सर्ग। यह प्रायश्चित्त ध्यानादि से सम्पन्न होता
६. तव (तपस्)-निविकृतिकादि। दूध, दही आदि विगय वस्तु का त्याग तथा
अन्य प्रकार के तप । ७. छेय (छेद)-प्रव्रज्यापर्याय ह्रस्वीकरणम् । दीक्षा-पर्याय को कुछ कम कर देना।
उस प्रायश्चित्त से जितना समय कम किया गया है, उस अवधि में बने हुए छोटे
साधु दीक्षा-पर्याय में उस दोषी साधु से बड़े हो जाते हैं। ८. मूल (मूल)-महावतारोपणम् । पुनर्दीक्षा। ६. अणवटुप्पा (अनवस्थाप्य)-कृततपसो व्रतारोपणम् । तप विशेष के पश्चात्
पुनर्दीक्षा। १०. पाराञ्चिय (पाराञ्चिक)-लिङ्गादिभेदम् । इस प्रायश्चित्त में संघ-बहिष्कृत
साधु एक अवधि विशेष तक साधु-वेष परिवर्तित कर जन-जन के बीच अपनी
आत्म-निन्दा करता है। उसके बाद ही उसकी पुनर्दीक्षा होती है।'
व्याख्या-ग्रन्थों में इन दसों प्रायश्चित्तों के विषय में भेद-प्रभेदात्मक विस्तृत व्याख्याएं हैं। निशीथ सूत्र में मासिक और चातुर्मासिक प्रायश्चित्तों का ही विधान है। इनका सम्बन्ध ऊपर बताए गए सातवें प्रायश्चित्त 'छेद' से है। मासिक प्रायश्चित्त अर्थात् एक मास के संयमपर्याय का छेद । 'छेद' प्रायश्चित्त छठे भेद 'तप' में भी बदल जाता है। इससे दोषी साधु संयम-पर्याय को छेद न कर तप-विशेष से अपनी शुद्धि करता है । दोष की तरतमता से मासिक प्रायश्चित्तों में गुरु और लघु दो-दो भेद हो जाते हैं।
विनय पिटक में समग्र दोषों को आठ भागों में बांटा गया है :
१. भिक्षु के लिए ४ दोष, भिक्षुणी के लिए ८ दोष 'पाराजिक' हैं। २. भिक्षु के लिए १३ दोष, भिक्षुणी के लिए १७ दोष 'संघादिसेस' हैं।
१. ठाणांग सूत्र, ठा० १० ।
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