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इतिहास और परम्पार ] आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता
४६५ ३. भिक्षु के लिए २ दोष, 'अनियत' हैं। . ४. भिक्षु के लिए ३० दोष, भिक्षुणी के लिए ३० दोष, 'निस्सग्गिय पाचि
त्तिय' हैं। ५. भिक्षु के लिए ६२ दोह, भिक्षुणी के लिए १६६ दोष 'पाचित्तिय' हैं। ६. भिक्षु के लिए ४ दोष, भिक्षुणी के लिए ८ दोष, 'पाटिदेसनीय' हैं। ७. भिक्षु के लिए ७५ बातें, भिक्षुणी के लिए ७५ बातें 'सेखिय' हैं।
८. भिक्षु के लिए ७ बातें, भिक्षुणी के लिए ७ बातें अधिकरण-समथ' हैं। दोष की तरतमता के अनुसार प्रायश्चित्तों का स्वरूप मृदु और कठोर है। 'पाराजिक' में भिक्षु सदा के लिए संघ से निकाल दिया जाता है। 'संघादिसेस' में कुछ अवधि के लिए दोषी भिक्षु-संघ से पृथक् कर दिया जाता है।
'अनियत' में संघ विश्वस्त प्रमाण से दोष निर्णय करता है और दोषी को प्रायश्चित्त कराता है।
निस्सगिय पाचित्तिय' में दोषी भिक्षु-संघ या भिक्षु-विशेष के समक्ष दोष स्वीकार करता है और उसे छोड़ने को तत्पर होता है।
'पाचित्तिय' में भिक्षु आत्मालोचनपूर्वक प्रायश्चित्त करता है।
'पाटिदेसनीय' में दोषी भिक्षु-संघ के समक्ष दोष स्वीकार करता है और क्षमा-याचना भी करता है।
'सेखिय' में शिक्षा-पद हैं । उन व्यावहारिक शिक्षा-पदों का लंघन भी दोष है।
"अधिकरण समथ' में उत्पन्न कलह की शान्ति के आचार बतलाए गए हैं। उनका लंघन करना भी दोष है।
दोषी साधु प्रायश्चित्त कैसे करे, इस विषय में दोनों परम्पराओं के अपने-अपने प्रकार हैं। जैन परम्परा के अनुसार प्रायश्चित्त कराने के अधिकारी आचार्य व गुरु हैं । वे बहुश्रुत व गाम्भीर्यादि अनेक गुणों के धारक होने चाहिए। एक साधु का प्रायश्चित्त वे दूसरे साधु को बताने के अधिकारी नहीं होते। व्यवहार सुत्त में बताया गया है-दोषी साधु अपने आचार्य व उपाध्याय के पास शल्य-रहित होकर आलोचना करे । आचार्य या उपाध्याय निकट न हों तो अपने गण के प्रायश्चित्त-वेत्ता साधु के पास वह आलोचना करे। यदि ऐसा भी सम्भव न हो तो अन्य गण के शास्त्रज्ञ साधु के पास वह आलोचना करे। ऐसा भी सम्भव न हो तो किसी बहुश्रुत पार्श्वस्थ के पास वह आलोचना करे। पार्श्वस्थ साधु का तात्पर्य है-जोसाघु का वेष धारण किये रहता है, पर, आचार का यथावत् पालन नहीं करता। ऐसा भी संयोग न हो तो ऐसे श्रावक के पास आलोचना करनी चाहिए, जो पहले साधु-जीवन में रह चुका हो और प्रायश्चित्त विधि का ज्ञाता हो। ऐसा भी संयोग न हो तो किसी समभावी देवता के पास आलोचना करे। यह भी सम्भव न हो वह साधु शून्य अरण्य में चला जाये और पूर्वाभिमुख या उत्तराभिमुख होकर अरिहन्त व सिद्धों को नमस्कार करे, उनकी साक्षी ग्रहण कर तीन बार अपने दोष का उच्चारण और आत्म-निन्दा करता हुआ अपनी धारणा के अनुसार प्रायश्चित्त ग्रहण करे।'
१. व्यवहार सुत्त उ० १, बो० ३४ से ३६ ।
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