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आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन
[खण्ड:१ जैन विधि में व्यक्तिपरता और योग्यता को जहाँ प्रधानता दी है, वहाँ बौद्ध, परम्परा में साधु-समुदाय के सामने प्रायश्चित्त ग्रहण का विधान किया गया है। वहाँ प्रायश्चित्त-विधि का व्यवस्थित रूप है :
प्रत्येक मास की कृष्ण चतुर्दशी और पूर्णमासी को तत्रस्थ सभी भिक्षु उपोसथागार में एकत्रित होते हैं । बुद्ध ने अपना उत्तराधिकारी संघ को बनाया ; अतः कोई निश्चित आचार्य नहीं होता। किसी प्राज्ञ भिक्षु को सभा के प्रमुख पद पर नियुक्त किया जाता है । तदनन्तर पातिमोक्ख का वाचन होता है। प्रत्येक प्रकरण की पूर्ति में पूछा जाता है-'उपस्थित सभी भिक्षु उक्त बातों में शुद्ध हैं ?' कोई भिक्षु खड़ा होकर तत्सम्बन्धी अपने किसी दोष की आलो. चना करना चाहता है तो संघ उस पर विचार करता है और उसकी शुद्धि कराता है। दूसरी बार फिर पूछा जाता है, 'उपस्थित सभी भिक्षु इन सब बातों में शुद्ध हैं ?' इस प्रकार तीन बार पूछ कर मान लिया जाता है, सब शुद्ध हैं। तदन्तर इसी क्रम से एक-एक कर आगे के प्रकरण पढ़े जाते हैं। इसी प्रकार भिक्षुणियाँ भिक्खुणी पातिमोक्ख का वाचन करती
जैन और बौद्ध दोनों परम्पराओं की प्रायश्चित्त-विधियाँ पृथक्-पृथक् प्रकार की हैं, पर, दोनों में ही मनोवैज्ञानिकता अवश्य है। प्रायश्चित्त करने वालों के लिए हृदय की पवित्रता और सरलता दोनों ही विधियों में अपेक्षित मानी गई हैं।
आचार-पक्ष
जिसीह और विनय पिटक के संविधानों से दोनों ही परम्पराओं की आचार-संहिता भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। दोनों के संयुक्त अध्ययन से ऐसा लगता है, आचार की ये दोनों सरिताएँ कहीं-कहीं एक-दूसरे के बहुत निकट हो जाती हैं तो कहीं एक-दूसरे से बहुत दूर । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह ; दोनों ही शास्त्रों में कठोरता से वजित किये गये हैं। इनके न्यूनाधिक सेवन पर प्रायश्चित्त भी न्यूनाधिक रूप से बताया गया है। कुल मिलाकर जिसीह के विधान अहिंसा, सत्य आदि के पालन की सूक्ष्मता तक पहुंचते हैं, विनय पिटक के विधान कुछ अर्थों में बहुत ही स्थूल और व्यावहारिक ही रह जाते हैं। दोनों परम्पराओं की आचार-संहिता में यह मौलिक अन्तर है ही। जैन भिक्षु की अहिंसा पृथ्वी, पानी, वनस्पति, वायु और अग्नि तक भी अनिवार्य होकर पहुँचती है। णिसीह में पृथ्वी, पानी आदि की हिंसा के सम्बन्ध से अनेक मासिक तथा चातुर्मासिक प्रायश्चित्त के विधान मिलते हैं। णिसोह के विधि-विधानों में व्यावहारिक पक्ष गौण और अहिंसा, सत्य आदि सैद्धान्तिक पक्ष प्रमुख हैं। विनय पिटक में सैद्धान्तिक पक्ष में भी अधिक संघ-व्यवस्था-रूप व्यावहारिक-पक्ष प्रमुख है।
जैन परम्परा के अनुसार पानी-मात्र जीव है साधु नदी, तालाब, वर्षा, कुएं आदि के पानी का उपयोग नहीं करता। पानी-मात्र शस्त्रोपहत अर्थात् अचित्त (अजीव) होकर ही साधु के लिए व्यवहार्य बनता है । विनय पिटक में अहिंसा की दृष्टि केवल अनछाने पानी तक पहुँची है । वहां जान-बूझ कर प्राणि-युक्त (अनछाने) पानी पीने वाले भिक्षु को 'पाचित्तिय'
१. विनय पिटक, निदान।
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