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इतिहास और परम्परा ]
आचार-ग्रन्थ और आचार-संहिता
दोष बताया गया है । जैन-भिक्षु के लिए स्नान-मात्र वजित है। वह अचित्त पानी से भी सर्व-स्नान और देश-स्नान नहीं करता। विनय पिटक में पन्द्रह दिनों से पूर्व स्नान करने को 'पाचित्तिय' कहा है। उसमें भी ग्रीष्म ऋतु आदि अपवाद रूप हैं। बौद्ध-भिक्षु और भिक्षुणियों के लिए नदी आदि में स्नान करने की भी व्यवस्थित आचार-संहिता है। तात्पर्य, पथ्वी. पानी. वनस्पति आदि के सम्बन्ध से जैनाचार और बौद्धाचार एक दूसरे से अत्यन्त भिन्न रह जाते हैं।
वस्त्र के सम्बन्ध से णि । में अपने लिए बनाये गये या खरीदे गये वस्त्र को कोई ग्रहण करे तो उसे 'लघु चतुर्मासिक' प्रायश्चित्त बताया गया है। विनय पिटक की व्यवस्था है-कोई राजा, राजकर्मचारी या गृहस्थ धन देकर अपने दूत को भिक्षु के पास भेजे, वह दूत भिक्षु से आ कर कहे-'भन्ते ! आपके लिए यह चीवर का धन है, आप इसे ग्रहण करें।' तब उस भिक्षु को दूत से कहना चाहिए-'आवुस ! हम चीवर के घन को नहीं लेते, समयानुसार चीवर ही लेते हैं।' वह दूत किसी उपासक को चीवर ला कर देने के लिए वह धन दे दे तो भिक्षु को अधिक-से-अधिक तीन बार उसे चीवर की बात याद दिलानी चाहिए और कहना चाहिए-'उपासक ! मुझे चीवर की आवश्यकता है।' इतने पर भी वह चोवर प्रदान न करे तो अधिक-से-अधिक पुनः तीन बार और उसके पास जा कर उसे याद दिलाने की दृष्टि से खड़ा रहना चाहिए। इतने तक वह उपासक चीवर प्रदान करे तो ठीक; इससे अधिक प्रयत्न कर यदि भिक्षु चीवर को प्राप्त करे तो उसे 'निस्सग्गिय पाचित्तिय' । भिक्षु का कर्त्तव्य है, वह उस अर्थदाता के पास जा कर कहे-'आयुष्यमन् ! तुम्हारा धन मेरे काम का नहीं हुआ। अपने धन को देखो, वह नष्ट न हो जाये।'५
णिसीह का विधान है-कोई साधु आहार, पानी, औषधि आदि रात भर भी संगृहीत रखता है, तो उसे 'गुरु चातुर्मासिक' प्रायश्चित्त । विनय पिटक का विधान हैभिक्षुओं ! घी, मक्खन, तेल, मधु, खांड आदि रोगी भिक्षुओ को सेवन करने योग्य पथ्यभेषज्य को ग्रहण कर अधिक-से-अधिक सप्ताह भर रख कर, भोग कर लेना चाहिए। इसका अतिक्रमण करने पर उसे निस्सग्गिय पाचित्तिय' है। जैन परम्परा में भिक्षु के लिए रात्रि-भोजन वजित है ।८ विनय पिटक के अनुसार जो कोई भिक्षु विकाल (मध्याह्न के बाद) में खाद्यभोजन खाये, उसे 'पाचित्तिय' है।६
विशेष भोज्य पदार्थों को माँग कर लेना जैन परम्परा में निषिद्ध है। विनय पिटक में
१. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय ६२ । २. दसवेयालिय, अ० ६, गा० ६१ से ६४ । ३. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचितिय, ५७ । ४. णिसीह सुत्त, उ०१८, बो० ३५ । ५. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, निस्सग्गिय पाचित्तिय १० । ६. णिसीह सूत्र, उ० ११, बो० १७६-१८३ । ७. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, निस्सग्गिय पाचित्तिय २३ । ८. दसवेयालिय, अ०४। ६. विनय पिटक, भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय ३७ ।
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