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________________ १४० आगम और त्रिपिटक एक अनुशीलन [ खण्ड : १ समय की भाँति जन्म के समय भी बत्तीस शकुन प्रकट हुए। लुम्बिनी वन में जिस समय बोधिसत्त्व उत्त्पन्न हुए, उसी समय राहुल-माता देवी, अमात्य छन्न (छन्दक ), अमात्य काल उदाई हस्तिराज आजातीय, अश्वराज कन्थक, महाबोधिवृक्ष और निधि-संभृत चार कलश उत्पन्न हुए । वे कलश क्रमशः गव्यूति, आधा योजन तीन गव्यूति एक योजन की दूरी पर थे । ये सात एक ही समय पैदा हुए। दोनों नगरों के निवासी बोधिसत्त्व को लेकर कपिलवस्तु नगर लौट आये । कालदेवल तापस आठ समाधि से सम्पन्न काल देवल तपस्वी राजा शुद्धोधन के कुल-मान्य थे। एक दिन भोजन से निवृत्त हो मनोविनोद के लिए त्रयस्त्रिश देवलोक में गये । वहाँ विश्राम के लिए बैठे हुए देवताओं से उन्होंने पूछा - " इस प्रकार सन्तुष्ट चित्त होकर आप क्रीड़ा कैसे कर रहे हैं? मुझे भी इसका रहस्य बताओ ।" देवों ने उत्तर दिया- " मित्र ! राजा शुद्धोदन के पुत्र उत्पन्न हुआ है । वह बोधि वृक्ष के नीचे बैठ, बुद्ध हो, धर्मचक्र प्रवर्तित करेगा । हमें उसकी अनन्त बुद्ध-लीला देखने व उसके धर्म सुनने का अवसर मिलेगा । हमारी प्रसन्नता का यही मुख्य कारण है ।" तपस्वी शीघ्र ही देवलोक से उतरे और राजमहलों में पहुँचे । बिछे हुए आसन पर बैठकर राजा से कहा- "महाराज ! आपको पुत्र हुआ है । मैं उसे देखना चाहता हूँ ।" राजा ने उसे सु-अलंकृत कुमार को अपने पास मंगाया और तापस की वन्दना के लिए कदम आगे बढ़ाये । बोधिसत्व के चरण उठकर तापस की जटा में जा लगे 1 बोधिसत्त्व के जन्म में उनके लिए दूसरा वन्दनीय नहीं होता। यदि अनजान में ही बोधिसत्त्व का सिर तापस के चरण पर रखा जाता तो तापस के सिर के सात टुकड़े हो जाते। मुझे अपना विनाश करना योग्य नहीं है, यह सोच तापस आसन से उठे और उन्होंने करबद्ध होकर प्रणाम किया। राजा ने इस आश्चर्य को देखा और अपने पुत्र की वन्दना की । तपस्वी को चालीस अतीत के और चालीस ही भविष्य के अस्सी कल्पों की स्मृति हो सकती थी । यह बुद्ध होगा या नहीं, इस अभिप्राय से तस्वी ने उनके शारीरिक लक्षणों को अच्छी तरह से देखा और यह जानाः अवश्य ही यह बुद्ध होगा | यह अद्भुत पुरुष है । वे मन-ही-मन मुस्कराये । फिर सोचने लगे, बुद्ध होने पर मैं इसे देख सकूंगा या नहीं ? कुछ चिन्तन के बाद ज्ञात हुआ, मैं इसे नहीं देख पाऊँगा । इसके बुद्ध होने के पूर्व ही मैं मृत्यु पाकर अरूप- लोक में उत्पन्न होऊँगा, जहां सौ अथवा सहस्र बुद्धों के अवतरित होने पर भी ज्ञान प्राप्ति नहीं हो सकती । वे अपने दुर्भाग्य पर रो पड़े । तत्रस्थ लोगों ने साश्चर्य इसका कारण पूछा। उनका प्रश्न था “अभी कुछ क्षण पूर्व आप हँसे और फिर रोने क्यों लगे ? क्या हमारे आर्य-पुत्र को कोई संकट होगा ?" सार हाथ में रखकर चला गया । बोधिसत्त्व उसे हाथ में लिए ही बाहर आए । माता ने उस समय उनसे पूछा – “पुत्र ! क्या लेकर आया है?" उन्होंने उत्तर दिया – “अम्म ! औषध ।" इसी हेतु से उनका नाम औषध दारक ही रखा गया । उस औषध को बरतन में रख दिया गया । वह औषध अन्धत्व, बधिरत्व आदि सभी प्रकार के रोगों के उपशमन में प्रयुक्त हुई । औषध राम-बाग थी; अतः महौषध नाम से विश्रुत हो गई । बोधिसत्त्व का नामकरण इसीलिए महौषध हो गया । --- जातक, सं० ५४६ के आधार पर । वेस्सन्तर जन्म में "माँ ! घर में कुछ है ? दान दूंगा ।" यह कहते हुए ही बोधिसत्त्व माता की कोख से निकले । माता ने “पुत्र ! तू धनवान कुल में पैदा हुआ है" यह कहते हुए Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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