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इतिहास और परम्परा] जन्म और प्रव्रज्या
१४१ तपस्वी ने गम्भीरता और दृढ़ता के साथ उत्तर दिया---"इनको संकट नहीं होगा। ये तो निःसन्देह बुद्ध होंगे।"
अगला प्रश्न हुआ--"तो फिर आप किस लिए रो रहे हैं ?" तपस्वी के शब्दों में अधीरता थी। उन्होंने कहा- "इस प्रकार के पुरुष को बुद्ध हुए मैं नहीं देख सकूँगा।"
मेरे पारिवारिकों में से कोई भी इन्हें बुद्ध हुआ देखेगा या नहीं, जब तपस्वी ने यह चिन्तन किया तो उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका भानजा नालक इसके योग्य है । वे तत्काल अपनी बहिन के घर आये और उससे पूछा-नालक कहां है ?"
बहिन ने उत्तर दिया--"आर्य । घर पर ही है।" तपस्वी ने कहा --"उसे बुला।"
नालक के पास आने पर तपस्वी बोले-'बेटा ! राजा शुद्धोदन के घर पुत्र उत्पन्न हुआ है । वह बुद्ध-अंकुर है । पैंतीस वर्ष बाद वह बुद्ध होगा और तू उसे देख पायेगा । तू आज ही प्रवजित हो जा।"
"मैं सत्तासी करोड़ धन वाले कुल में उत्पन्न हुआ हूँ, तो भी मामा मुझे अनर्थ में संलग्न नहीं रहे हैं", यह सोचते हुए उसने उसी समय बाजार से काषाय वस्त्र और मिट्टी का पात्र मंगाया। सिर दाढ़ी को मुड़ाया और काषाय वस्त्र पहने । “लोक में जो उत्तम पुरुष है, उसी के नाम पर मेरी यह प्रब्रज्या है"--यह कहते हुए उसने बोधिसत्त्व की ओर अंजलिबद्ध हो पाँचों अंगों से वंदना की। पात्र को झोली में रखा, उसे कंधे पर लटकाया और हिमालय में प्रवेश कर श्रमण-धर्म का पालन करने लगा। नालक की अगली कथा है कि तथागत के बुद्ध हो जाने पर वह उनके पास आया। उनसे ज्ञान सुना और फिर हिमालय में चला गया। वहाँ अर्हत्-पद को प्राप्त कर उत्कृष्ट प्रतिपदा (सर्व श्रेष्ठ मार्ग) पर आरूढ़ हुआ। सात मास तक ही जीवित रहा । सुवर्ण पर्वत के पास निवास करता हुआ वह खड़ा-खड़ा उपाधिरहित-निर्वाण को प्राप्त हो गया। भविष्य-प्रश्न
पाँचवें दिन बोधिसत्त्व को सिर से नहलाया गया। नामकरण संस्कार किया गया। राज-भवन को चार प्रकार के गंधों से लिपवाया गया। खीलों सहित चार प्रकार के पुष्प बिखेरे गये। निर्जल खीर पकाई गई । राजा ने तीनों वेदों के पारंगत एक सौ आठ ब्राह्मणों को निमंत्रित किया। उनमें राम, ध्वज, लक्ष्मण, मंत्री, कौण्डिन्य, भोज, सुयाम और सुदत्त, ये आठ षड-अंग जानने वाले देवज्ञ ब्राह्मण थे। इन्होंने ही मंत्रों की व्याख्या की। गर्भसमय का स्वप्न-विचार भी इन्हीं ब्राह्मणों ने किया था । उन्हें राज-भवन में बैठाया गया, सुभोजन कराया गया और सत्कार पूर्वक बोधिसत्त्व के लक्षणों के बारे में पछा गया"भविष्य क्या है?'--'आठ ब्राह्मणों में से सात ने दो अंगुलियां उठा कर दो प्रकार का भविष्य उनकी हथेली को अपनी हथेली पर रखा और हजार की थैली रखवाई।
--जातक, सं०५४७ के आधार पर । बुद्ध के महौषध नामकरण की जैसी अनुश्रुति है, कुछ वैसी ही जैन परम्परा में तार्थङ्कर ऋषभ के सम्बन्ध से ईक्ष्वाक वंश के नाम-
निर्धारण की चर्चा है। जब ऋषभ एक वर्ष के थे, तभी उन्होंने ईक्षु लेने के लिए सम्मुखीन इन्द्र की ओर हाथ बढ़ाया। इन्द्र ने वह ईक्ष उनके हाथ में दिया। ऋषभ के उस ईक्षु-भक्षण से (आकु-भक्षणार्थे) वंश का नाम ईक्ष्वाकु पड़ा।
--आचार्य श्री तुलसी, भरत-मुक्ति; मुनि महेन्द्र कुमार 'प्रथम' भरत-मुक्ति : एक आत्माराम एण्ड सन्स, १६६४, पृ० १३ ।
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