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इतिहास और परम्परा ]
जन्म और प्रव्रज्या
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ऐसा नहीं करती । वह दस मास की पूर्ण अवधि तक बोधिसत्त्व को अपने उदर में धारण कर खड़ी ही प्रसव करती है । यह बोधिसत्त्व की माता की धर्मता है ।
जन्म
देवी महामाया ने गर्भ के पूर्ण होने पर राजा शुद्धोदन के समक्ष पीहर जाने की इच्छा व्यक्त की । राजा ने कपिलवस्तु से देवदह नगर तक का मार्ग समतल कराया और केला, पूर्ण घ्ट, ध्वज, पताका आदि से अच्छी तरह सजाया । रानी को स्वर्ण-शिविका में बैठाकर एक हजार अधिकारियों व बहुत सारे दास-दासियों के साथ विदा किया। दोनों नगरों के बीच, दोनों ही नगर वासियों का लुम्बिनी नामक एक मंगल शाल वन था । वह वन उस समय मूल से शिखर की शाखाओं तक पूर्णतः फूला हुआ था । शाखाओं और पुष्पों के बीच भर गण, नाना पक्षि-संघ मधुर कूजन कर रहे थे । सारा ही लुम्बिनी वन बहुत सञ्जित था । महामाया ने उस वन में घूमने की इच्छा व्यक्त की। अधिकारियों ने उसे तत्काल क्रियान्वित किया । सारा सार्थ वन में प्रविष्ट हुआ । रानी जब एक सुन्दर शाल के नीचे पहुँची तो उसने उसकी शाखा को पड़कना चाहा । शाल शाखा तत्काल मुड़कर देवी के हाथके समीप आ गई। उसने पाथ फैलाकर उसे पकड़ लिया । उसी समय उसे प्रवस - वेदना आरम्भ हुई। चारों ओर कनात का घेरा डाल दिया गया और लोग एक ओर हो गये । शाखा हाथ में लिए खड़े ही गर्भ-उत्थान हो गया । उस समय चारों शुद्ध चित्त महाब्रह्मा सोने का जाल हाथ में लिए वहाँ पहुँचे । बोधिसत्त्व को उस जाल में लेकर माता के सम्मुख रखा और बोले— “देवी ! सन्तुष्ट होओ; तुमने महाप्रतापी पुत्र को जन्म दिया है ।"
बोधिसत्त्व अन्य प्राणियों की तरह माता की कुक्षि से गन्दे व मल-विलिप्त नहीं निकलते । वे तो धर्मासन से उतरते धर्म कथिक व सोपान से उतरते पुरुष के समान, दोनों हाथ और दोनों पैर फैलाये खड़े मनुष्य की तरह, मल से सर्वथा अलिप्त, काशी देश के शुद्ध व निर्मल वस्त्र में रखे मणि-रत्न के समान चमकते हुए माता के उदर से निकले । बोधिसत्त्व और उनकी माता के सत्कारार्थ आकाश से दो जल-धाराएं निकलीं और उन्होंने दोनों के शरीर को शीतल किया ।
ब्रह्माओं के हाथ से चारों महाराजाओं ने उन्हें मांगलिक समझे जाने वाले कोमल मृगचर्म में ग्रहण किया। उनके हाथ से मनुष्यों ने दुकूल की तह में ग्रहण किया । तब वे मनुष्यों के हाथ से छूट कर पृथ्वी पर खड़े हो गये । उन्होंने पूर्व दिशा की ओर देखा । अनेक सहस्र चक्रवाल एक आंगन से हो गये। वहां देवता और मनुष्य गंध-माला आदि से पूजा करते बोले - "महापुरुष ! यहां आप जैसा कोई नहीं है ; विशिष्ट तो कहां से होगा ।" बोधिसत्त्व ने चारों दिशाओं व चारों अनुदिशाओं को ऊपर-नीचे देखा । अपने जैसा किसी को न पाकर उत्तर दिशा में क्रमश: सात कदम गमन किया । महाब्रह्मा ने उस समय उन पर श्वेत छत्र धारण किया; सुयामों ने ताल व्यजन और अन्य देवताओं ने राजाओं के अन्य ककुधभाण्ड हाथ में लिए उनका अनुगमन किया। सातवें कदम पर ठहर कर " मैं संसार में सर्वश्रेष्ठ हूँ" - पुरुष - पुंगवों की इस प्रथम निर्भीक वाणी का उच्चारण करते हुए उन्होंने सिंहनाद किया ।
बोधिसत्त्व ने माता की कोख से निकलते ही जिस प्रकार इस जन्म में वाणी का उच्चारण किया, उसी प्रकार महौषध जन्म व वेस्सन्तर जन्म में भी किया था । गर्भ धारण के
१. खड्ग, छत्र, मुकुट, पादुका और व्यजन ।
२. महौसध जन्म में बोधिसत्त्व के कोख से निकलते ही देवेन्द्र शक्र आया और चन्दन
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