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इतिहास और परम्परा ]
गोशालक
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हो गये हैं । मेरा कथन किंचित् भी असत्य नहीं है ।' गोशालक ने मेरी बात पर विश्वास नहीं किया। वह उस तिल वृक्ष के पास गया और उसने वह फली तोड़ी। उसमें सात ही तिल निकले । गोशालक ने सोचा - जिस प्रकार वनस्पति के जीव मरकर पुन: उसी शरीर में उत्पन्न हो जाते हैं, इसी प्रकार सभी जीव मरकर उसी शरीर में उत्पन्न हो सकते हैं । इस प्रकार गोशालक ने अपना 'परिवृत्य परिहार' का एक नया सिद्धान्त बना लिया । गोशालक का ध्यान तेजोलब्धि को प्राप्त करने में लगा था ; अतः वह मुझ से पृथक् हो गया । यथाविधि छः महीनों की तपस्या से उसे संक्षिप्त और विपुल; दोनों तेजोलेश्यायें प्राप्त हुईं।
"कुछ दिन बाद गोशालक से वे छः दिशाचर भी आ मिले। तब से वह अपने को जिन न होते हुए भी जिन, केवली न होते हुये भी केवली, सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित कर रहा है ।"
गोशालक और आनन्द
यह बात श्रावस्ती में फैल गई। सर्वत्र एक ही चर्चा होने लगी- 'गोशालक जिन नहीं, परन्तु जिन प्रलापी है ; श्रमण भगवान् महावीर ऐसा कहते हैं ।
मंखलिपुत्र गोशालक ने भी अनेक मनुष्यों से बात सुनी। वह अत्यन्त क्रोधित हुआ । क्रोध से जलता हुआ वह आतापना -भूमि से हालाहला कुम्भकारापण में आया और अपने आजीवक संघ के साथ अत्यन्त आमर्ष के साथ बैठा । उस समय श्रमण भगवान् महावीर के स्थविर
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शिष्य आनन्द भिक्षार्थ नगर में गए हुए थे । वे सरल व विनीत थे । निरन्तर छट्ठ तप किया करते थे । उच्च नीच व मध्यम कुलों में घूमते हुए वे हालाहला के कुम्भाकारापण से कुछ दूर से गुजरे । गोशालक ने उन्हें देखा और बोला - "आनन्द ! तू इधर आ और मेरा एक दृष्टान्त सुन ।" गोशालक की बात सुन - कर आनन्द उसके पास पहुँचे और गोशालक ने कहना प्रारम्भ किया :
"बात बहुत पुरानी है । कुछ लोभी व्यापारी व्यवसाय के निनित्त अनेक प्रकार का किराना और सामान गाड़ियों में भरकर तथा पाथेय का प्रबन्ध कर रवाना हुए। मार्ग में उन्होंने ग्राम-र -रहित, गमनागमन-रहित, निर्जल व सुविस्तीर्ण आटवी में प्रवेश किया । जंगल का कुछ भाग पार करने पर साथ में लिया हुआ पानी समाप्त हो गया । तृषा से पीड़ित व्यापारी परस्पर विचार-विमर्श करने लगे। उनके सामने एक विकट समस्या खड़ी हो गयी । अन्त में वे सभी आटवी में चारों ओर पानी ढूंढ़ने लगे। चलते-चलते वे एक ऐसे घने जंगल में जा पहुँचे, जहाँ एक विशाल वल्मीक था । उसके ऊंचे-ऊंचे चार शिखर थे । उन्होंने एक शिखर को फोड़ा । उन्हें स्वच्छ, उत्तम, पाचक और स्फटिक के सदृश जल प्राप्त हुआ । उन्होंने पानी पिया, बैल आदि वाहनों को पिलाया तथा मार्ग के लिये पानी के बर्तन भर लिये । उन्होंने लोभ से दूसरा शिखर भी फोड़ा। उसमें उन्हें पुष्कल स्वर्ण प्राप्त हुआ। उनका लोभ बढ़ा और मणि रत्नादि की कामना से तीसरा भी फोड़ डाला । उसमें उन्हें मणिरत्न प्राप्त हुए। बहुमूल्य, श्रेष्ठ, महापुरुषों के योग्य तथा महाप्रयोजन युक्त वज्र रत्न की कामना से उन्होंने चतुर्थ शिखर भी फोड़ने का विचार किया। उन व्यापारियों में एक विज्ञ तथा अपने व सबके हित, सुख, पथ्य, अनुकम्पा तथा कल्याण का अभिलाषी वणिक् भी था । वह बोला'हमें चतुर्थं शिखर फोड़ना नहीं चाहिए। यह हमारे लिए कदाचित् दुःख और संकट का कारण भी बन सकता है।' परन्तु, अन्य साथी व्यापारियों ने उनकी बात नहीं मानी और
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