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________________ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [ खण्ड १ दिया । हम कूर्मग्राम की ओर आगे बढ़ गए। इसी बीच आकाश में बादल घुमड़ आये और बिजली चमकने लगी । साधारण वर्षा हुई। वह तिल का पौधा मिट्टी में जम गया तथा बद्धमूल हो गया। वे सात तिल पुष्प भी मरकर कथित प्रकार से उसी तिल के पौधे की फली में सात तिल उत्पन्न हुए । वैश्यायन बाल तपस्वी २० ''हम कूमग्राम आए । ग्राम के बाहर वैश्यायन बाल तपस्वी निरन्तर छट्ठ तप के साथ सूर्य के सम्मुख अपने दोनों हाथ ऊँचे कर आतापना ले रहा था । सूर्य के ताप से उसके सिर से जुएँ नीचे गिर रही थीं। वह प्राण, भूत, जीव और सत्व की दया के लिए नीचे गिरी हुई जुओं को पुनः अपने बालों में रख लेता था । गोशालक ने वैश्यायन बाल तपस्वी को देखा । वह मेरे पास से खिसका । उसके पास गया और उससे बोला- 'तू कोई तपस्वी है या जुओं का शय्यातर (स्थान देने वाला ) ?' वैश्यायन बाल तपस्वी ने गोशालक के कथन को आदर नहीं दिया और मौन ही रहा । गोशालक उसी बात को पुनः पुनः दो-तीन बार दुहराता रहा । तपस्वी कुपित हो उठा । अत्यन्त क्रुद्ध होकर वह आतापना-भूमि से नीचे उतरा । सात-आठ कदम पीछे हटा | जोश में आकर उसने गोशालक को भस्म करने के लिए अपनी तपः- उपलब्ध तेजोलेश्या छोड़ दी । उस समय मुझे मंखलिपुत्र गोशालक पर अनुकम्पा आई । वैश्यायन बाल तपस्वी की तेजोलेश्या का प्रतिसंहरण करने के लिए मैंने शीत तेजोलेश्या छोड़ी। मेरी शीत तेजोलेश्या ने उसकी उष्ण तेजोलेश्या का प्रतिघात कर दिया । उस प्रयोग से तपस्वी का वह प्रयोग विफल हो गया । गोशालक को सुरक्षित खड़ा देख कर तापस सारा रहस्य समझ गया । उसने अपनी तेजोलेश्या का प्रत्यावर्तन किया और कुछ क्षणों तक बोलता रहा- 'भगवन ! मैंने आपको जाना, मैंने आपको जाना ।' "गोशालक इस समग्र घटना चक्र से अवगत नहीं था । वह मेरे पास आया और बाला--'यह जुओं का शय्यातर क्या कर रहा था ?' मैंने उसे सारावृत्तान्त बताया। गोशालक भयभीत हुआ और मन में प्रसन्न भी हुआ कि मैं मरते-मरते बच गया । गोशालक ने वन्दननमस्कार कर मुझे पूछा - 'भगवन् ! यह संक्षिप्त और विपुल तेजोलेश्या कैसे प्राप्त की जा सकती है ?' मैंने कहा - ' नाखून सहित बन्द मुट्ठी भर उड़द के बाकलों और एक चुल्लू भर पानी से कोई निरन्तर छठ छठ का तप करे तथा आतापना- भूमि में सूर्य के सम्मुख ऊर्ध्व बाहु होकर आतापना ले, उसे छः मास के पश्चात् संक्षिप्त और विपुल दोनों प्रकार की तेजोलेश्यायें प्राप्त होती हैं ।' गोशालक ने मेरी बात विनयपूर्वक स्वीकार की । तेजोलेश्या की प्राप्ति "एक दिन मैंने गोशालक के साथ कूर्मग्राम से सिद्धार्थग्राम की ओर विहार किया । हम उसी स्थान पर आए, जहाँ वह तिल का पौधा था । गोशालक ने तिलों के सम्बन्ध में पूछा - 'भगवन् ! तिल वृक्ष के सम्बन्ध में आपने मुझे जो कुछ कहा था, वह सब मिथ्या निकला । न वह तिल वृक्ष निष्पन्न हुआ है और न वे सात पुष्प जीव मर कर सात तिल हुए हैं।' मैंने उसे सारी घटना सुनाई और कहा- गोशालक ! तू ने मेरे कथन को असत्य प्रमाणित करने के लिए उस तिल वृक्ष को उखाड़ डाला था, पर, आकस्मिक वृष्टि - योग से वह पुन: मिट्टी में रुप गया और वे सात पुष्प जीव भी इसी तिल वृक्ष की फली में सात तिल Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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