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________________ इतिहास और परम्परा ] गोशालक १६ दिन था । मैं मिक्षार्थ राजगृह के उच्च, नीच और मध्यम कुल में घूमता हुआ विजय गाथापति के घर गया । मुझे अपने घर में पाकर विजय गाथापति अत्यन्त हर्षित हुआ। वह अपने आसन से उठा तथा सात-आठ कदम आगे आया । उसने उत्तरीय का उत्तरासंग बनाकर, हाथ जोड़कर मुझे तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन - नमस्कार किया। उसने मेरा पुष्कल अशन, पान, खादिम, स्वादिम आदि से सत्कार किया । विजय गाथापति ने द्रव्य की शुद्धि से, दायक की शुद्धि से, पात्र की शुद्धि से तथा त्रिविध- त्रिविध करण-शुद्धि से दिए गये दान के कारण देवायुष्य बांधा और अपने संसार भ्रमण को अल्प किया। ऐसा करने से उसके घर स्वर्णादि पाँच दिव्यों की वृष्टि हुई। कुछ ही देर में यह संवाद नगर भर में फैल गया । लोग विजय तथा उसके मनुष्य जन्म को धन्यवाद देने लगे तथा उसके पुण्यशालित्व का अभिनन्दन करने लगे । "मंखलिपुत्र गोशालक ने भी यह संवाद सुना। उसके हृदय में कुतूहल व जिज्ञासा हुई । वह विजय गृहपति के घर आया । उसने वर्षित द्रव्यों की तथा घर से बाहर निकलते हुए मुझे व विजय गृहपति को देखा। वह मन ही मन बहुत हर्षित हुआ । मेरे पास आया और मुझे तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन- नमस्कार कर बोला- 'भगवन् ! आप मेरे घर्माचार्य हैं तथा मैं आपका शिष्य हूं ।' उस समय मैंने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया ओर मौन रहा । द्वितीय मासिक तप का पारणा आनन्द गृहपति के घर, तृतीय मासिक तप का पारणा सुनन्द के घर और चतुर्थ मासिक तप का पारणा नालन्दा के निकट कोल्लाक ग्राम में बहुल ब्राह्मण के घर हुआ। तीनों ही स्थलों पर उसी तरह तपः- प्रभाव प्रकट हुआ । " तन्तुवायशाला में मुझे न देखकर गोशालक राजगृह में मुझे ढूंढ़ने लगा, परन्तु, उसे कहीं भी पता न लगा । वह पुनः तन्तुवायशाला में आया। उसने अपने वस्त्र, पात्र, जूते तथा चित्रपट ब्राह्मणों को दे दिए और अपनी दाढ़ी व मूंछ का मुण्डन करवाया । वह भी कोल्लाक सन्निवेश की ओर चल पड़ा। वहां उसने जनता द्वारा बहुल के यहां हुई वृष्टि का समाचार सुना। उसके मन में विचार उत्पन्न हुआ - 'मेरे धर्माचार्य और धर्मोपदेशक श्रमण भगवान् महावीर को; जैसी द्युति, तेज, यश, बल, वीर्य, पुरुषाकार - पराक्रम और ऋद्धि प्राप्त है; वैसी अन्य श्रमण-ब्राह्मण को सम्भव नहीं । मेरे धर्माचार्य व धर्मगुरु वही होने चाहिए ।' वह खोजता हुआ कोल्लाक सन्निवेश के बाहर मनोज्ञ भूमि में मेरे पास आया । उसने तीन बार प्रदक्षिणापूर्वक वन्दन- नमस्कार किया तथा मुझे निवेदन करने लगा'भगवन् ! आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका शिष्य हूँ ।' मैंने मंखलिपुत्र गोशालक की यह बात स्वीकार की । उसके साथ प्रणीत भूमि में छः वर्ष पर्यन्त लाभ - अलाभ, दुःख-सुख, सत्कारअसत्कार का अनुभव करता हुआ मैं विहार करता रहा । "एक बार शरत्काल में वृष्टि नहीं हो रही थी । मैं गोशालक के साथ सिद्धार्थ ग्राम कूर्मग्राम की ओर जा रहा था। मार्ग में एक पत्र - पुष्पयुक्त तिल का पौधा मिला। उसको देखकर गोशालक ने पूछा- 'भगवन् ! यह तिल का पौधा फलित होगा या नहीं ? पौधे पर लगे सात फूलों के जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होंगे ?' मैंने कहा – 'गोशालक ! यह तिल का पौधा फलित होगा तथा ये सात तिलपुष्प के जीव मरकर इसी पौधे की एक फली में सात तिल होंगे ।' "गोशालक को मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ। मुझे असत्य प्रमाणित करने के उद्देश्य से वह मेरे पास से खिसका और उसने तिल के पौधे को समूल उखाड़ कर एक ओर फेंक Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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