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________________ १८ आगम और त्रिपिटक : एक अनुशीलन [खण्ड १ गोशालक को अष्टांक निमित्त का कुछ ज्ञान था; अत: वह सभी को लाभ-अलाम, सुख-दुःख और जीवन-मरण के विषय में सत्य-सत्य उत्तर दे सकता था। अपने इस अष्टांग निमित्त के ज्ञान के बल पर ही उसने अपने को श्रावस्ती में जिन न होते हुए भी जिन, केवली न होते हुए भी केवली, सर्वज्ञ न होते हुए भी सर्वज्ञ घोषित करना प्रारम्भ कर दिया। वह कहा करता था--'मैं जिन, केवली और सर्वज्ञ हूं।' उसकी इस घोषणा के फलस्वरूप श्रावस्ती के त्रिकमार्गों चतुष्पथों और राजमार्गों में सर्वत्र यही चर्चा होने लगी। एक दिन श्रमण भगवान् महावीर श्रावस्ती पधारे। जनता धर्म-कथा श्रवणार्थ गई। सभा समाप्त हुई। महावीर के प्रमुख शिष्य गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति अनगार भिक्षार्थ नगरी में पधारे। मार्ग में उन्होंने अनेक व्यक्तियों के मुख से गोशालक की उद्घोषणा के सम्बन्ध में सुना । वे भगवान् महावीर के पास आए और उन्होंने गोशालक की घोषणा के सम्बन्ध में पूछा तथा गोशालक का आरम्भ से अन्त तक का इतिवृत्त सुनाने के लिए भी अनुरोध किया। गोशालक का पूर्ववृत्त महावीर बोले- गौतम ! गोशालक की घोषणा मिथ्या है । वह जिन, केवली और सर्वज्ञ नहीं है। मंखलिपुत्र गोशालक का मंखजातीय मंखलि नामक पिता था। मंखलि के भद्रा नामक पत्नी थी। वह सुन्दरी और सुकुमारी थी। एक बार गभिणी हुई। शरवण ग्राम में गोबहुल नामक ब्राह्मण रहता था। वह धनिक तथा ऋग्वेदादि ब्राह्मण-शास्त्रों में निपुण था। गोबहुल के एक गोशाला थी। "एक बार मंखलि भिक्षाचर हाथ में चित्रपट लेकर गर्भवती भद्रा के साथ ग्रामानुग्राम घूमता हुआ शरवण सन्निवेश में आया । उसने गोबहुल की गोशाला में अपना सामान रखा तथा भिक्षार्थ ग्राम में गया। वहां उसने निवास-योग्य स्थान की बहुत खोज की, परन्तु, उसे कोई स्थान न मिला; अतः उसने उसी गोशाला के एक भाग में चातुर्मास व्यतीत करने के लिए निर्णय किया । नव मास साढ़े सात दिवस व्यतीत होने पर मंखलि की धर्मपत्नी भद्रा ने एक सुन्दर व सुकुमार बालक को जन्म दिया। बारहवें दिवस माता-पिता ने गोबहुल की गोशाला में जन्म लेने के कारण शिशु का नाम गोशालक रखा। क्रमश: गोशालक बड़ा हुआ और पढ़लिखकर परिणत मतिवाला हुआ। गोशालक ने भी स्वतन्त्र रूप से चित्रपट हाथ में लेकर अपनी आजीविका चलाना प्रारम्भ कर दिया। गोशालक का प्रथम सम्पर्क "तीस वर्ष तक मैं गहवास में रहा। माता-पिता के दिवंगत होने पर स्वर्णादि का त्याग कर, मात्र एक देवदूष्य वस्त्र धारण कर प्रवजित हुआ। पाक्षिक तप करते हुए मैंने अपना प्रथम चातुर्मास अस्थिग्राम में किया। दूसरे वर्ष मासिक तप करते हुए राजगृह के बाहर नालन्दा की तन्तुवायशाला के एक भाग में यथायोग्य अभिग्रह ग्रहण कर मैंने चातुर्मास किया। उस समय गोशालक भी हाथ में चित्रपट लेकर ग्रामानुग्राम घूमता हुआ तथा भिक्षा के द्वारा अपना निर्वाह करता हुआ उसी तन्तुवायशाला में आया। उसने भिक्षार्थ जाते हुए अन्य स्थान ढूंढ़ने का बहुत प्रयत्न किया, परन्तु, योग्य स्थान न मिला। उसने भी उसी तन्तुवायशाला में चातुर्मास व्यतीत करने का निश्चय किया। मेरे प्रथम मासिक तप के पारणे का ____Jain Education International 2010_05 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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