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________________ ३ श्रागमों में मंखलिपुत्र गोशालक का मत आजीवक नाम से चलता था । सम्राट् अशोक के शिलालेखों में भी आजीवक भिक्षुओं को सम्राट् द्वारा गुफा दिए जाने का उल्लेख है ।" वह सम्प्रदाय कब तक चलता रहा, यह ठीक से कह देना कठिन है, पर शिलालेखों आदि से ई०पू० दूसरी शताब्दी तक तो उसका अस्तित्व प्रमाणित होता ही है । आगमों के अनुसार गोशालक का प्रतिद्वंद्वी के रूप में भगवान् महावीर के साथ अधिक सम्बन्ध रहा है गोशालक की मान्यता और उनकी जीवन-चर्या के सम्बन्ध में जैन आगम सुविस्तृत ब्यौरा देते हैं । आगमों में अनेक प्रसंग इस सम्बन्ध से सुलभ हैं । भगवती सूत्र, शतक १५ में गोशालक की विस्तृत जीवन-गाथा बहुत ही रोमांचक और घटनात्मक रूप से मिलती है। वहां बताया गया हैश्रावस्ती नगर के ईशान कोण में कोष्ठक चैत्य था । इसी नगर में आजीवक मत की उपासिका, हालाहला कुम्हारिन रहती थी। उसके पास प्रचुर समृद्धि थी । उसका प्रभाव भी बहुत व्यापक था । वह किसी से भी पराभूत नहीं हो सकती थी। उसने आजीवकों के सिद्धांत हृदयंगम कर रखे थे । उनका अनुराग उसके रग-रग में व्याप्त था । वह कहा करती थी - 'आजीवक मत ही सत्य तथा परमार्थ है; अन्य सब मत व्यर्थ हैं ।' गोशालक एक बार चौबीस वर्ष पूर्व दीक्षित मंखलिपुत्र गोशालक अपने आजीवक संघ से परिवृत्त हालाहला कुम्हारिन के कुम्भकारापण बाजार में ठहरा हुआ था। उसके पास शान, कलंद, कणिकार अछिद्र, अग्निवेश्यायन और गोमायुपुत्र अर्जुन नामक छ: दिशाचर आए। उन्हें आठ प्रकार के निमित्त, गीति-मार्ग तथा नृत्य मार्ग का ज्ञान था । उन्होंने गोशालक का शिष्यत्व स्वीकार किया । १. जनार्दन भट्ट, अशोक के धर्मलेख, पृ० ४०१ से ४०३, पब्लिकेशन्स डिवीजन, दिल्ली, १९५७ । २. चिमनलाल जयचन्द शाह, उत्तर हिन्दुस्तान मां जैन धर्म, पृ० ६४, लोंगमैन्स एन्ड ग्रीन कं० लन्दन, १६३० । Jain Education International 2010_05 ३. 'ये दिशाचर, महावीर के पथभ्रष्ट (पतित) शिष्य थे, ऐसा टीकाकार तथा पार्श्वनाथसंतानीय थे', ऐसा चूर्णिकार कहते हैं । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002621
Book TitleAgam aur Tripitak Ek Anushilan Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNagrajmuni
PublisherConcept Publishing Company
Publication Year1987
Total Pages744
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & History
File Size15 MB
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